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- गीता दर्शन भाग-3 -
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सांप ही दिखाई पड़ता है, रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। तो यह भूल कांटा गड़ता है, वह मुझे नहीं गड़ता। यह तो कोई भी मानने को कलेक्टिव माइंड की है, इसलिए भ्रांति है।
| राजी हो जाएगा। बीमारी आती है. वह मझे नहीं आती। मौत आती यह उस तरह की है, जैसे हम एक लकड़ी को पानी में डाल दें| है, वह मुझे नहीं आती। यह तो कोई भी मानने को राजी हो जाएगा। और वह तिरछी हो जाए। तिरछी होती नहीं, दिखाई पड़ती है। नहीं, कठिनाई दुख से नहीं है; कठिनाई सुख से है। सुख मैं नहीं लकड़ी को बाहर खींच लें, वह फिर सीधी मालूम होती है। फिर हूं, यह मानने को हम स्वयं ही राजी नहीं होते। इसलिए दुख सवाल पानी में डालें, वह फिर तिरछी मालूम होती है। अंदर लकड़ी को | नहीं है, सवाल सुख है। जब आप कहते हैं कि मैं जिंदा हूं, तो फिर पानी में हाथ डालकर टटोलें, वह सीधी मालूम पड़ती है। लेकिन | आपको कहना पड़ेगा कि मैं मरूंगा।
आंख को फिर भी तिरछी दिखाई पड़ती है! वह भूल नहीं है, भ्रांति __ ध्यान रखें, भूल मरने से नहीं आती, जिंदगी के साथ आती है। है। आप हजार दफे जान लिए हैं भलीभांति कि लकड़ी तिरछी नहीं जिंदगी-मैं जिंदा हूं! और अगर भूल तोड़नी है, तो जिंदगी से होती पानी में, फिर भी जब लकड़ी पानी में दिखाई पड़ेगी. तो तिरछी तोड़नी पड़ेगी, मौत से नहीं। लेकिन लोग मौत से तोड़ने का उपाय ही दिखाई पड़ेगी।
करते हैं। बैठ-बैठकर याद करते रहते हैं कि आत्मा अमर है। मैं भ्रांति वह है, जो समूहगत मन से पैदा होती है।
कभी नहीं मरूंगा। इसे मैं भ्रांति कहता हूं, हमारे तादात्म्य को। दुख और सुख के | लेकिन उनको खयाल नहीं है कि जब आप अपने को जीवित साथ हम अपने को एकदम एक कर लेते हैं। यह समूहगत मन, | | समझ रहे हैं, तो एक दिन आपको, मरता हूं, यह भी समझना कलेक्टिव माइंड से पैदा होने वाली भ्रांति है। जैसे पानी में लकड़ी | पड़ेगा। यह उसका दूसरा हिस्सा है। लेकिन कोई भी बैठकर यह डाल दी और वह तिरछी मालूम हुई। यह सांप दिखाई पड़ने लगे स्मरण नहीं करता कि मैं जीवित कहां हूं! यह बहुत घबड़ाने वाली रस्सी में, वैसी भूल नहीं है। इसलिए हजार दफे समझने के बाद, | | बात होगी। अगर तोड़ना है, तो यहां से तोड़ना पड़ेगा। फिर, फिर वही भूल हो जाती है।
। जब सख आए. तब तो मन तत्काल राजी हो जाता है कि मैं सख अचेतन से आती है यह भ्रांति। आप कम जिम्मेवार हैं, अभी। हूं। जब कोई गले में फूलमाला डाले, तब तो ऐसा लगता है, मेरे आप अनंत जन्मों में जिस ढंग से जीए हैं, उसकी जिम्मेवारी ज्यादा ही गले में डाली है। मुझ में कुछ गुण हैं। और जब कोई जूतों की है। गहरे में बैठ गई है यह बात। क्यों बैठ गई है? बैठ जाने का | माला गले में डाल दे, तो हम समझते हैं, वह आदमी शैतान था, सूत्र भी समझ लेना चाहिए।
दुष्ट था; मेरे गले में नहीं डाली। इतने गहरे में जब भ्रांति बैठी हो, तो उसका कोई सूत्र बहुत गहरा जब कोई सम्मान करे, तब तो तादात्म्य करने के लिए बड़ी तैयारी होता है। और इसीलिए तोड़ने में इतनी मुश्किल पड़ती है। गीता | होती है। लेकिन जब कोई अपमान करे, तब तो हम खुद ही चिल्लाती रहती है, पढ़ते रहते हैं। कोई तोड़ता नहीं। बहत मुश्किल तादात्म्य तोड़ना चाहते हैं। दुख से तो कोई तादात्म्य बनाना चाहता मालूम पड़ता है। क्योंकि गीता तो आप पढ़ते हैं बुद्धि से, जो बहुत नहीं। बनता है। बनता इसलिए है कि सुख से सब तादात्म्य बनाना ऊपर है। और भ्रांति आती है बहुत गहरे से आपके। उन दोनों का चाहते हैं। कोई मेल नहीं हो पाता।
सुख से हम क्यों तादात्म्य बनाना चाहते हैं? और जब तक सुख पढ़ लेते हैं, सुख-दुख में समबुद्धि रखनी चाहिए। फिर जरा-सा | से न टूटे, तब तक दुख से कभी न टूटेगा। जब तक सम्मान से न पैर में कांटा गड़ा, और सब सूत्र खो जाते हैं। गीता भूल जाती है, टूटे, तब तक अपमान से न टूटेगा। जब तक प्रशंसा से न टूटे, तब पैर पकड़ लेते हैं। और कहते हैं, मुझे कांटा गड़ गया! वह जो बुद्धि तक निंदा से न टूटेगा। जब तक जीवन से न टूटे, तब तक मृत्यु से ने सोचा था, वह काम नहीं पड़ता। बुद्धि से भी ज्यादा गहरी भ्रांति | न टूटेगा। है कहीं। भ्रांति अचेतन में है। और क्यों है?
इसलिए साधक को शुरू करना है सुख से। दुख से तो सभी दुख के कारण नहीं है भ्रांति; भ्रांति सुख के कारण है। भ्रांति दुख शुरू करते हैं, कभी नहीं टूटता। सुख से शुरू करना है। सुख में के कारण नहीं है, इस बात को तो कोई भी मानने को राजी हो अपने को बाहर रखने की चेष्टा! जब सुख आए, तब दूर खड़े करने जाएगा। यह बड़ी सुखद है बात कि यह पता चल जाए कि पैर में की कोशिश अपने को!
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