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4 गीता दर्शन भाग - 3 >
जाने वाले हैं। सभी सुख समाप्त हो जाने वाले हैं। और कितने ही बड़े सुख हों, और कितने ही लंबे मालूम पड़ते हों, जब वे चुक जाते हैं, तो क्षण में बीत गए, ऐसे ही मालूम पड़ते हैं।
तो वैसी चेतना बहुत सुखों को उपलब्ध होती है अर्जुन! लेकिन फिर वापस संसार में लौट आती है, जब सुख चुक जाते हैं।
एक विकल्प यह है कि बहुत-से सुखों को पाए वैसी चेतना, और वापस लौट आए उस जगत में, जहां से गई थी। दूसरी संभावना यह है कि वैसी चेतना उन घरों में जन्म ले ले, जहां ज्ञान का वातावरण है। उन घरों में जन्म ले ले, जहां योग की हवा है, मिल्यू, योग का विचारावरण है। जहां तरंगें योग की हैं, और जहां साधना के सोपान पर चढ़ने की आकांक्षाएं प्रबल हैं । और जहां चारों ओर संकल्प की आग है, और जहां ऊर्ध्वगमन के लिए निरंतर सचेष्ट लोग हैं, उन परिवारों में, उन कुलों में जन्म ले ले। तो जहां से छूटा पिछले जन्म में योग, अगले जन्म में उसका सेतु फिर जुड़ जाए।
दो विकल्प कृष्ण ने कहे। एक तो, स्वर्ग में पैदा हो जाए। स्वर्ग का अर्थ है, उन लोकों में, जहां सुख ही सुख है, दुख नहीं है। इन दोनों बातों में कई रहस्य की बातें हैं। एक तो यह कि जहां सुख ही सुख होता है, वहां बड़ी बोर्डम, बड़ी ऊब पैदा हो जाती है। इसलिए देवताओं से ज्यादा ऊबे हुए लोग कहीं भी नहीं हैं। जहां सुख ही सुख है, वहां ऊब पैदा हो जाती है।
इसलिए कथाएं हैं कि देवता भी जमीन पर आकर जमीन के दुखों को चखना चाहते हैं, जमीन के सुखों को भोगना चाहते हैं, क्योंकि यहां दुख मिश्रित सुख हैं। अगर मीठा ही मीठा खाएं, तो थोड़ी-सी नमक की डिगली मुंह पर रखने का मन हो आता है। बस, ऐसा ही । सुख ही सुख हों, तो थोड़ा-सा दुख करीब-करीब चटनी जैसा स्वाद दे जाता है। स्वर्ग एकदम मिठास से भरे हैं, सुख ही सुख हैं। जल्दी ऊब जाता है। लौटकर संसार में वापस आ जाना पड़ता है। दुर्गति तो नहीं होती, लेकिन समय व्यर्थ व्यतीत हो जाता है।
सुखों में गया समय, व्यर्थ गया समय है। उपयोग नहीं हुआ उसका, सिर्फ गंवाया गया समय है। हालांकि हम सब यही समझते हैं कि सुख में बीता समय, बड़ा अच्छा बीता। दुख में बीता समय, बड़ा बुरा गया। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि दुख में बीता समय क्रिएटिव भी हो सकता है, सृजनात्मक भी हो सकता है; उससे जीवन में कोई क्रांति भी घटित हो सकती है। लेकिन सुख में बीता समय, सिर्फ नींद में बीता हुआ समय है, उससे कभी कोई क्रांति घटित नहीं होती । सुख में बीते समय से कभी कोई क्रिएटिव
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एक्ट, कोई सृजनात्मक कृत्य पैदा नहीं होता।
दुख तो मां भी देता है, और दुख निखार भी देता है, और दुख भीतर साफ भी करता है, शुद्ध भी करता है; सुख तो सिर्फ जंग लगा जाता है। इसलिए सुखी लोगों पर एकदम जंग बैठ जाती है। इसलिए सुखी आदमी, अगर ठीक से देखें, तो न तो बड़े कलाकार पैदा करता, न बड़े चित्रकार पैदा करता, न बड़े मूर्तिकार पैदा | करता । सुखी आदमी सिर्फ बिस्तरों पर सोने वाले लोग पैदा करता । कुछ नहीं, नींद! वक्त काट देने वाले लोग पैदा करता है। शराब पीने वाले, संगीत सुनकर सो जाने वाले, नाच देखकर सो जाने 'वाले इस तरह के लोग पैदा करता है।
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अगर हम दुनिया के सौ बड़े विचारक उठाएं, तो दो-तीन प्रतिशत से ज्यादा सुखी परिवारों से नहीं आते। क्या बात है ? क्या सुख जंग लगा देता है चित्त पर ?
लगा देता है। बा देता है। और सुख ही सुख, तो कहीं गति नहीं रह जाती; ठहराव हो जाता है, स्टेगनेंसी हो जाती है।' स्वर्ग एक स्टेगनेंट स्थिति है।
ट्रेंड रसेल ने तो कहीं मजाक में कहा है कि स्वर्ग का जो वर्णन है, उसे देखकर मुझे लगता है कि नर्क में जाना ही बेहतर होगा । कोई पूछ रहा था रसेल को कि क्यों ? तो उसने कहा, नर्क में कुछ करने को तो होगा; स्वर्ग में तो कहते हैं, कल्पवृक्ष हैं; करने को भी कुछ नहीं है! करना भी चाहेंगे, तो न कर सकेंगे। सोचेंगे, और हो | जाएगा! तो वहां कुछ अपने लायक नहीं दिखाई पड़ता है। नर्क में कुछ तो करने को होगा ! दुख से लड़ तो सकेंगे कम से कम । दुख से लड़ेंगे, तो भी तो कुछ निखार होगा। और वहां तो सुख सिर्फ बरसता रहेगा ऊपर से, तो थोड़े दिन में सड़ जाएंगे।
कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग चला जाता है वैसा व्यक्ति, जो योग से भ्रष्ट होता है अर्जुन सुखों की दुनिया में चला जाता है। शुभ करना चाहा था, नहीं कर पाया, तो भी इतना तो उसे मिल जाता है कि सुख मिल जाते हैं। लेकिन वापस लौट आना पड़ता है, वहीं चौराहे पर ।
संसार चौराहा है। अगर वहां से मोक्ष की यात्रा शुरू न हुई, तो वापस - वापस लौटकर आ जाना पड़ता है। वह क्रास रोड्स पर हैं हम जैसे कि मैं एक रास्ते के चौराहे पर खड़ा होऊं। अगर बाएं | चला जाऊं, तो फिर दाएं जाना हो, तो फिर चौराहे पर वापस आ जाना पड़े। संसार चौराहा है। अगर स्वर्ग चला जाऊं, फिर मोक्ष की यात्रा करनी हो, तो चौराहे पर वापस आ जाना पड़े।
तो वे लोग, जिन्होंने योग की साधना भी सुख पाने के लिए ही
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