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________________ - यह किनारा छोड़ें > पहले मरने के वह मुझसे मिलकर गई और उसने कहा कि अगले | कृष्ण कहते हैं, सदकर्म की, शुभ कर्म की दिशा में किया गया जन्मदिन पर मैं ले लूं, तो हर्ज तो नहीं? मैंने कहा, मुझे कोई हर्ज | | विचार भी, शुभ कर्म की दिशा में उठाया गया एक कदम भी; शुभ नहीं। पर मेरा क्या पक्का कि मैं बचूंगा। उससे मैंने नहीं कहा; वह | कर्म की दिशा, चाहे पूरी हो पाए या न हो पाए, तो भी कभी दुर्गति, नाराज हो जाए। उसने कहा कि नहीं-नहीं, ऐसी आप क्यों बात कभी बुरी गति नहीं होती है। करते हैं। आप तो जरूर बचेंगे। मैंने कहा, समझ लो कि मैं बच भी गया, लेकिन तुम बचोगी, इसका कोई पक्का? उसने कहा, अभी हुआ ही क्या है। अभी मेरी सत्तर साल की ही तो उम्र है। सत्तर की प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः। तो मेरी उम्र ही है, उसने कहा। अभी तो मैं सब तरह से स्वस्थ हूं! शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते । । ४१ ।। मैंने कहा, मान लो यह भी हुआ कि तुम भी बच गईं, मैं भी बच ___ अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् । गया, लेकिन तुम संन्यास लोगी ही सालभर बाद, तुम्हारा मन एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् । । ४२ ।। संन्यास लेने का रहेगा, इसका कुछ पक्का? उसने कहा, क्यों नहीं किंतु वह योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात रहेगा? मैंने कहा, मान लो तुम्हारा भी रहा, मेरा देने का न रहा, तो | स्वर्गादिक उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तुम क्या करोगी? उसने कहा, आप भी कहां की बातें करते हैं! तक वास करके, शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में अगले जन्मदिन का पक्का रहा। मैंने कहा, अगर अगला जन्मदिन - जन्म लेता है। पक्का है, तो ठीक। अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान लेकिन दूसरे दिन सुबह ही, मेरी सभा में ही आते हुए, | योगियों के ही कुल में जन्म लेता है; परंतु इस प्रकार का जो सभा-भवन के सामने ही कार से टकराकर बेहोश हो गई। यह जन्म है संसार में, निःसंदेह अति दुर्लभ है। आठ-दस घंटे बाद होश में आई, तो मैं उसे देखने अस्पताल गया। मैंने कहा, होश में आ गईं. तो अच्छा हआ। क्या खयाल है संन्यास के बाबत ? उसने कहा, मझे ठीक तो हो जाने दो। आप भी कैसे 'ग-भ्रष्ट पुरुष! अर्जुन जो पूछ रहा है, वह योग-भ्रष्ट आदमी हो! यह भी नहीं पूछा कि चोट कहां लगी! एकदम पूछते | के लिए ही पूछ रहा है। वह कह रहा है कि संसार को हैं, संन्यास! मैंने कहा, क्या पता, जब तक मैं पूछू, तुम चली मैं छोड़ दूं, भोग को मैं छोड़ दूं और योग सध न पाए। जाओ। क्योंकि कल तो कोई पक्का न था इस एक्सिडेंट का। यह या सधे भी, तो बिखर जाए; थोड़ा बने भी, तो हाथ छूट जाए। थोड़ा हो गया न आज! जन्मदिन अब उतना पक्का है, जितना कल था? | पकड़ भी पाऊं और खो जाए सहारा हाथ से, भ्रष्ट हो जाऊं बीच . उसने कहा, संदिग्ध मालूम होता है! फिर मैंने कहा, कितनी देर | | में। तो फिर मैं टूट तो न जाऊंगा? खो तो न जाऊंगा? नष्ट तो न करनी है ? उसने कहा कि कम से कम चौबीस घंटे। मैं जरा ठीक हो जाऊंगा? हो जाऊं, तो फिर आपसे कहूं। मैंने कहा, जैसी तेरी मर्जी। पर मैंने | कृष्ण कहते हैं उसे, योग-भ्रष्ट हुए पुरुष की आगे की गति के कहा कि एक काम करना, चौबीस घंटे सोचती रहना कि संन्यास संबंध में दो-तीन बातें कहते हैं। वे कीमती हैं। और एक बहुत गहरे लेना है, संन्यास लेना है। विज्ञान से संबंधित हैं। थोड़ा-सा समझें। वह तो मर गई छ: घंटे बाद। चौबीस घंटे पूरे नहीं हुए। उसकी बहू | ___ एक, कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति, वैसी चेतना, जो थोड़ा मेरे पास दौड़ी आई कि अब क्या होगा! वह तो मर गई! तो मैंने कहा | साधती है योग की दिशा में, लेकिन पूर्णता को नहीं उपलब्ध कि मैं उसे मरी हुई हालत में संन्यास देता हूं। उसने कहा, यह कैसा | | होती...। पूर्णता को उपलब्ध हो जाए, तो मुक्त हो जाती है। पूर्णता संन्यास है ? मैंने कहा कि उसके मन में अगर जरा भी भाव रह गया को उपलब्ध न हो पाए, तो अपरिसीम सुखों को उपलब्ध होती है। होगा, जरा भी भाव मरते क्षण में कि संन्यास लेना है, संन्यास लेना इस अपरिसीम सुखों की जो संभावनाओं का जगत है, उसका नाम है तो भाव ही तो सब कुछ है। तो बीज तो निर्मित हो गया। उसकी | स्वर्ग है। बहुत सुखों को उपलब्ध होती है। आगे की यात्रा पर उसके फल कभी भी आ सकते हैं। लेकिन ध्यान रहे, सभी सुख चुक जाने वाले हैं। सभी सुख चुक 287
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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