SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ < अपरिग्रही चित्त - बिगड़े! स्कूटर बिगड़ा नहीं है। फिर मैं चुप रह गया। कई बार चलेगा, पति तो सालभर बाद वापस आ जाएगा; ऐसी क्या उनको देखा कि बरांडे में ही खडे स्कटर को स्टार्ट करके. फिर बंद अडचन है। लेकिन हीरे की अंगठी। वस्तुओं से इतना गहरा संबंध, करके, भीतर चले जाते हैं। मैंने पूछा कि बात क्या है? कभी | | उसका कारण भी वही है। व्यक्तियों से संबंध बनाने का उपाय न निकालते नहीं! . होने से सारी की सारी चेतना वस्तुओं से संबंध निर्मित करने में लग इनफैचुएशन है भारी उनका। स्कूटर क्या है, उनकी प्रेयसी है। गई है। उसको ऐसा सम्हालकर, पोंछ-तांछकर रख देते हैं, निकालते नहीं। __अपरिग्रह का अर्थ है, वस्तुओं में रस नहीं है, इनफैचुएशन नहीं निकलते तो अपनी फटी साइकिल पर ही हैं। जब निकलते हैं, उसी है। वस्तुएं हैं, उनका उपयोग ठीक है। हीरे की अंगूठी है, तो पहन पर! मैंने कई दफा देखा। मैंने कहा, यह स्कूटर किसलिए है? वे| लें; और नहीं है, तो नहीं। हीरे की अंगूठी है, तो ठीक; नहीं है, तो बोले कि कभी समय-बेसमय! लेकिन आज तो वर्षा हो रही है, तो न होना ठीक। जिस दिन ये दोनों बातें एक-सी हो जाएं और नाहक रंग खराब हो जाएगा। कभी धूप तेजी होती है, तो नाहक रंग खिलवाड़ हो जाए कि हीरे की अंगूठी हो, तो खेल है; और न हो, खराब हो जाएगा। मैंने उनका स्कूटर निकलते नहीं देखा है। तो घास की अंगूठी भी बनाकर पहनी जा सकती है; और बिलकुल सभी के पास ऐसी स्कूटर जैसी थोड़ी-बहुत चीजें होंगी। सभी न हो, तो नंगी अंगुली का अपना सौंदर्य है। इतनी सरलता से चित्त के पास। वह आप रखे हुए हैं सम्हालकर। स्त्रियों के पास बहुत हैं। चलता हो वस्तुओं के बीच में, तो अपरिग्रही चित्त है। भागा हुआ उसका कारण है। क्योंकि पुरुष तो बाहर के जगत में व्यक्तियों से नहीं, वस्तुओं के बीच जीता हुआ। लेकिन रसमुक्त। उपयोग करता बहुत तरह के संबंध बना लेते हैं। स्त्रियों के हमने पुरुषों से सब | है, लेकिन आसक्त नहीं, विक्षिप्त नहीं, पागल नहीं है। तरह के संबंध तुड़वा दिए हैं। उनको घर के भीतर बंद कर दिया है। ___ और वही व्यक्ति उपयोग कर पाता है, जो विक्षिप्त नहीं है। जो ___ तो पुरुषों के जगत में तो बहुत तरह के संबंध हो पाते हैं-दल | विक्षिप्त है, वह तो उपयोग कर ही नहीं पाता। उसका उपयोग तो है, क्लब है, पार्टी है, संघ है, मित्र है, फलां हैं, ढिकां हैं, हजार | वस्तु कर लेती है। वस्तु को सम्हालकर रखता है, सेवा करता है, उपाय हैं। और पुरुष बाहर की दुनिया में घूमकर बहुत तरह के संबंध | | झाड़ता-पोंछता है। और सपने देखता रहता है कि कभी पहनूंगा, निर्मित करता रहता है। लेकिन स्त्री को हमने घर में बंद कर दिया। कभी पहनूंगा। वह कभी कभी नहीं आता। और वह वस्तु हंसती तो उसके हम किसी तरह के बाहर जगत से संबंध निर्मित नहीं होने होगी. अगर हंस सकती होगी। देते। तो उसकी जो संबंध बनाने की जो प्यास है, अतृप्ति है, वह ___ अपरिग्रही चित्त, एकांत में जीने वाला चित्त ही प्रभु के सतत वस्तुओं पर निकलती है। इसलिए स्त्रियां वस्तुओं के लिए स्मरण में उतर सकता है। और सतत स्मरण में उतरने का अर्थ है, बिलकुल इनफैचुएटेड हो जाती हैं। एक क्षण भी अगर पूर्ण स्मरण में उतर जाए, तो सतत स्मरण बन मेरे पास कई स्त्रियां आती हैं, वे कहती हैं, संन्यास हमें लेना है, | | जाता है। भूला नहीं जा सकता; भूलने का उपाय नहीं है। लेकिन दिक्कत सिर्फ एक है कि तीन सौ साड़ियां! और कोई प्रभ की एक झलक मिल जाए, तो भलने का उपाय नहीं है। एक दिक्कत नहीं है; और हमें कोई कष्ट ही नहीं है संन्यास में। सिर्फ क्षण भी द्वार खुल जाए और हम देख लें कि वह है, फिर कोई हर्ज कठिनाई यह है कि इन तीन सौ साड़ियों का क्या होगा! एक का नहीं है। हम कभी न देख पाएं, तो भी भीतर उसकी धुन बजती ही मामला नहीं है, न मालूम कितनी स्त्रियों ने मुझे आकर कहा कि रहेगी। श्वास-श्वास जानती ही रहेगी, रो-रोआं पहचानता ही संन्यास की बात बिलकुल जमती है मन को, सब ठीक है, | | रहेगा कि वही है, वही है, वही है। पूरे जीवन की यह धुन बन लेकिन...! तब उनका कमजोर हिस्सा आ जाता है, साफ्ट-कार्नर, | | जाएगी कि वही है। लेकिन एक क्षण भी! वे साड़ियां! वह इनफैचुएशन है। कृष्ण कहते हैं, सतत, प्रतिक्षण, निरंतर, व्यवधान न हो जरा भी, उसका कारण है कि पुरुषों ने जो जगत बनाया है, उसमें स्त्रियों | तब मुझमें प्रतिष्ठा है। को व्यक्तियों से संबंध बनाने के सब दरवाजे बंद कर दिए, तो | | एक क्षण भी हो जाए, तो निरंतर हो जाएगा। एक क्षण कैसे हो उसने वस्तुओं से अपना संबंध बना लिया। वह वस्तुओं के लिए जाए? कहां जाएं हम उस क्षण को पाने के लिए? वह मोमेंट, वह दीवानी है। पति को सजा हो जाए, उनको हीरे की अंगूठी चाहिए। क्षण कहां मिले कि एक बार दरस-परस हो जाए, एक बार आंख 109
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy