________________
गीता दर्शन भाग-3
भीतर चेतना तो कभी बूढ़ी होती नहीं, कपर की खोल ही बूढ़ी होती | इसका यह मतलब है कि फिर भूख लगेगी, तो आप भोजन नहीं है। इसलिए कभी-कभी बूढ़े भी जवानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं, | | करेंगे? नहीं। उसका कारण वही है। भीतर चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती। हां, इसका यह मतलब जरूर है कि फिर भूख लगेगी, तो ही
और वैज्ञानिक हार्मोन्स खोज ही लिए हैं. आज नहीं कल वे| आप भोजन करेंगे। और इसका यह मतलब जरूर है कि जब भूख इंजेक्शन तैयार कर ही लेंगे कि एक बढ़े आदमी को इंजेक्शन दे | | समाप्त हो जाएगी, तब आप तत्काल भोजन बंद कर देंगे। इसका दिया, उसकी दस साल उम्र कम हो गई! एक इंजेक्शन दिया, यह मतलब भी जरूर है कि तब आप ज्यादा भोजन न कर सकेंगे। उसकी बीस साल उम्र कम हो गई! शरीर के हार्मोन बदले जाएं, तो और इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप गलत भोजन भी साठ साल का आदमी अपने को तीस साल का अनुभव जिस दिन | न कर सकेंगे। करने लगेगा, उस दिन बड़ी मुश्किल होगी उसको। शरीर तो साठ गलत, और ज्यादा, और व्यर्थ का भोजन जो हम लादे चले जाते साल का ही मालूम पड़ेगा। लेकिन हार्मोन के बदल जाने से उसकी | हैं, वह हमारी इंद्रियों की आसक्ति से पैदा होता है, शरीर की भूख आइडेंटिटी फिर बदलेगी। वह तीस साल जैसा व्यवहार करना शुरू से नहीं। मांसाहार किए चले जाते हैं, शराब पीए चले जाते हैं, कुछ कर देगा।
भी खाए चले जाते हैं, उसका कारण भूख नहीं है। उसका कारण चेतना की कोई उम्र नहीं है। शरीर की जैसी उम्र हो जाए, चेतना | | इंद्रियों की आसक्ति है। अपने को वैसा ही मान लेती है। चेतना को सिर्फ होश है। और होश हां, इंद्रियों की आसक्ति चली जाए, तो भूख तो लगेगी; और मैं का हम दुरुपयोग कर रहे हैं। होश से हम दो काम कर सकते हैं। आपसे कहूं कि और भी शुद्धतर भूख की प्रतीति होगी। और भी होश से हम चाहें तो शरीर के साथ अपने को एक मान सकते हैं; | शुद्धतर! लेकिन तब आप भोजन तभी कर सकेंगे, जब भूख यह अज्ञान है। होश से हम चाहें तो शरीर से अपने को भिन्न मान लगेगी। अभी तो जब भोजन दिख जाए, तभी भूख लग जाती है। सकते हैं; यही ज्ञान है।
भोजन न भी दिखे, तो मन में ही भोजन की कल्पना चलती है और इंद्रियों की आसक्ति से वही मुक्त होगा, जो शरीर से अपने को | भूख लग जाती है। अभी तो हमारी अधिक भूख फैलेसियस है, भिन्न मानने में समर्थ हो जाए।
धोखे की है। तो उपाय करें, जिनसे आपके और शरीर के भिन्नता का बोध | जो लोग शरीरशास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि तीखा और प्रखर होता चला जाए। जब भूख लगे, तो कहें जोर से | | अधिक लोग, भूख नहीं लगती है, तब खा लेते हैं; और उसी की कि मेरे शरीर को भूख लगी है। और जब भोजन से तृप्ति हो जाए, | वजह से हजारों बीमारियां पैदा होती हैं। समय से खा लेते हैं, कि तो कहें जोर से कि मेरा शरीर तृप्त हुआ। जब नींद आए, तो कहें | | बस हो गया वक्त भोजन का, तो भोजन कर लेते हैं। फिर स्वाद से कि मेरे शरीर को नींद आती है। और जब बीमार पड़ जाएं, तो कहें| | खा लेते हैं, क्योंकि अच्छा लग रहा है, स्वादिष्ट लग रहा है, तो कि मेरा शरीर बीमार पड़ा। इसे जोर से कहें, ताकि आप भी इसे | | और डाले चले जाते हैं। और कभी इस बात की फिक्र नहीं करते गौर से सुन सकें और इस अनुभव को गहरा करते चले जाएं। ज्यादा | | कि भूख का क्या हाल है! देर नहीं होगी कि आपको यह प्रतीति सघन होने लगेगी। भूख से कोई संबंध हमारे भोजन का नहीं रह गया है। भोजन
ये सारी प्रतीतियां सजेशंस हैं हमारे। हम कहते हैं, मैं शरीर हूं एक मानसिक विलास बन गया है। भूख एक शारीरिक जरूरत है, बार-बार, तो यह सजेशन बन जाता है, यह मंत्र बन जाता है। हम भूख एक आवश्यकता है। भोजन एक वासना बन गई है। हमने हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। मानने लगते हैं, शरीर हो गए। कहें जोर भूख के अतिरिक्त भी भोजन में रस पैदा कर लिए हैं, वे जो इंद्रियों से, तो हिप्नोटिज्म टूट जाएगा, सम्मोहन टूट जाएगा; डिहिप्नोटाइज्ड की आसक्ति से आते हैं। हो जाएंगे। और जान पाएंगे कि मैं शरीर नहीं हूं।
। सभी तरफ ऐसा हुआ है। कामवासना के संबंध में भी ऐसा हुआ जिस दिन जान पाएंगे, मैं शरीर नहीं हूं, उसी दिन इंद्रियों की है। पशु भी हमसे ज्यादा संयत व्यवहार करते हैं कामवासना में। आसक्ति विदा हो जाएगी। और जिस दिन इंद्रियों की आसक्ति पीरियाडिकल है। एक अवधि होती है, तब पशु कामातुर होता है। विदा होती है, उसी दिन कर्म में कोई आसक्ति नहीं रह जाती। क्या लेकिन मनुष्य अकेला पशु है पृथ्वी पर, जो चौबीस घंटे, सालभर
36