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________________ गीता दर्शन भाग-3 शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः। पाते हैं। क्योंकि जहां आप खड़े हैं, वहां से वह बात शुरू नहीं हो नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ।। ११ ।। रही है। वह बात वहां से शुरू हो रही है, जहां करने वाला खड़ा है। तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः। | और यात्रा तो वहां से शुरू होगी, जहां आप खड़े हैं। उपविश्यासने युज्याद्योगमात्मविशुद्धये ।। १२ ।। । मैं अगर मंदिर के भीतर खड़ा हूं, तो मैं आपसे कह सकता हूं शुद्ध भूमि में कुशा, मृगछाला और वस्त्र है उपरोपरि जिसके, कि मंदिर के भीतर आ जाओ। और सीढ़ियों की चर्चा छोड़ सकता ऐसे अपने आसन को न अति ऊंचा और न अति नीचा स्थिर | हूं। क्योंकि जहां मैं खड़ा हूं, वहां सीढ़ियों का कोई भी प्रयोजन नहीं स्थापन करके, और उस आसन पर बैठकर है। द्वार-दरवाजों की बात न करूं, हो सकता है। क्योंकि जहां मैं तथा मन को एकाग्र करके, चित्त और इंद्रियों की क्रियाओं खड़ा हूं, अब वहां कोई द्वार-दरवाजा नहीं है। लेकिन आपको को वश में किया हुआ, अंतःकरण की शुद्धि के लिए। द्वार-दरवाजा भी चाहिए होगा, सीढ़ियां भी चाहिए होंगी, तभी योग का अभ्यास करे। मंदिर के भीतर प्रवेश हो सकता है। जो आत्यंतिक वक्तव्य हैं, अंतिम वक्तव्य हैं, वे सही होते हुए । भी उपयोगी नहीं होते हैं। of तर-गुहा में प्रवेश के लिए, वह जो हृदय का अंतर- कृष्ण ऐसी बात कह रहे हैं, जो कि पूरी सही नहीं है, लेकिन फिर 1 आकाश है, उसमें प्रवेश के लिए कृष्ण ने कुछ विधियों | | भी उपयोगी है। और बहुत बार कृष्ण जैसे शिक्षकों को ऐसी बातें का संकेत अर्जुन को किया है। | कहनी पड़ी हैं, जो कि उन्होंने मजबूरी में कही होंगी-आपको योग की समस्त विधियां बाहर से प्रारंभ होती हैं और भीतर | देखकर, आपकी कमजोरी को देखकर। वे वक्तव्य आप पर निर्भर समाप्त होती हैं। यही स्वाभाविक भी है। क्योंकि मनुष्य जहां है, | | हैं, आपकी कमजोरी और सीमाओं पर निर्भर हैं। वहीं से प्रारंभ करना पड़ेगा। मनुष्य की जो स्थिति है, वही पहला | - अब जैसे कृष्ण कह रहे हैं आसन की बात कि आसन न बहुत कदम बनेगी। और मनुष्य बाहर है। इसलिए योग की कोई भी ऊंचा हो, न बहुत नीचा हो। शुरुआत स्वभावतः बाहर से होगी। हम जहां हैं, वहीं से यात्रा पर जो भीतर पहुंच गया, वहां ऊपर-नीचा आसन, न-आसन, कुछ निकल सकते हैं। जहां हम नहीं हैं, वहां से यात्रा शुरू नहीं की जा | भी शेष नहीं रह जाते। वैसा भीतर पहुंचा हुआ आदमी कह सकता सकती है। है, जैसा कबीर ने बहुत जगह कहा है कि क्या होगा आसन लगाने इस संबंध में दो-तीन अनिवार्य बातें समझ लेनी चाहिए, फिर से? सब व्यर्थ है! कबीर गलत नहीं कहते। कबीर एकदम ठीक ही कृष्ण की विधि पर हम विचार करें। कहते हैं। लेकिन कबीर जो कहते हैं उसमें और आप में इतना बड़ा - बहुत बार ऐसा हुआ है। जो जानते हैं, उनका मन होता है आपसे अंतराल, इतना बड़ा गैप है कि वह कभी पूरा नहीं होगा। कहें, वहीं से शुरू करो, जहां वे हैं। उनकी बात इंच-इंच सही होती कबीर कहते हैं, क्या होगा मृगछाल बिछा लेने से? ठीक ही है, फिर भी बेकार हो जाती है। कहते हैं, गलत नहीं कहते हैं। मृग की चमड़ी भी बिछा ली, उस मैं जहां हूं, अगर मैं किसी दूसरे को कहूं कि वहां से शुरू करो, पर बैठ भी गए, तो क्या होगा? आत्यंतिक दृष्टि से, आखिरी दृष्टि तो भला बात कितनी ही सही हो, वह दूसरे के लिए व्यर्थ हो | से कबीर ठीक ही कहते हैं कि क्या होगा? कितने ही मृगचर्म जाएगी। उचित और सार्थक तो यही होगा कि दूसरा जहां है, वहां | बिछाकर बैठ जाएं, तो होना क्या है? से मैं कहूं कि यहां से शुरू करो। फिर भी जब कृष्ण कहते हैं, तो कबीर से ज्यादा करुणा है उनके बहुत बार जानने वाले लोगों ने भी अपनी स्थिति से वक्तव्य दे | | मन में। जब वे अर्जुन से कहते हैं कि मृगचर्म पर बैठकर, न अति दिए हैं, जो कि किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और उन वक्तव्यों से | | ऊंचा हो आसन, न अति नीचा हो, सम हो, ऐसे आसन में बैठकर, बहुत बार हानि भी हो भी हो जाती है। क्योंकि वहां से आप कभी शरू ही चित्त को एकाग्र करे. इंद्रियों के व्यापार को समेट ले. इंद्रियों का नहीं कर सकते हैं। सुनेंगे, समझेंगे, सारी बात खयाल में आ जाएगी मलिक हो जाए तो ही योग में प्रवेश होता है। और फिर भी पाएंगे कि अपनी जगह ही खड़े हैं; इंचभर हट नहीं कृष्ण और कबीर के इन वक्तव्यों में इतना फासला क्यों है?
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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