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________________ जीवन अवसर है। > क्या कभी आपने खयाल किया कि प्रेम जिससे भी हमारा होता है, हम उससे कुछ भी नहीं छिपाते ! अगर कुछ भी छिपाते हैं, तो वह मतलब यही हुआ कि नहीं है; पूरा नहीं है। और पूरा ही प्रेम होता है; अधूरा तो कोई प्रेम होता नहीं । प्रेम का अर्थ है, जिस व्यक्ति से मेरा प्रेम है, उसके साथ मैं ऐसे ही रहूंगा, जैसे मैं अपने ही साथ हूं। उससे मैं कुछ भी छिपाऊंगा नहीं । न मेरा कोई पाप, न मेरा कोई झूठ, न मेरी कोई वृत्ति। उससे मैं कुछ भी न छिपाऊंगा। उसके सामने मैं उघड़कर बिलकुल नग्न जाऊंगा, मैं जैसा हूं। क्या परमात्मा के सामने कभी आप उघड़कर पूरे नग्न हुए हैं? ईसाइयत ने, क्रिश्चियनिटी ने कन्फेशन ईजाद किया इसी सिद्धांत के आधार पर। आधार यही है कि तब तक प्रार्थना पूरी नहीं हो सकती, जब तक कि किसी ने अपने पापों को स्वीकार न कर लिया हो, अन्यथा पाप का छिपाना ही फासला रहेगा, डिस्टेंस रहेगा। एक आदमी खड़ा है भगवान के मंदिर में जाकर और वह जान रहा है कि मैंने चोरी की है। पुलिस से तो छिपा रहा है; घर के लोगों से छिपा रहा है; गांव के लोगों से भी छिपा रहा है; भगवान से भी छिपा रहा है! खड़ा है चंदन - तिलक वगैरह लगाकर । और उस चंदन - तिलक के पीछे चोर खड़ा है। और भगवान की प्रार्थना कर रहा है बड़े जोर-शोर से तो फासला भारी है। इसलिए ईसाइयत ने सच में कीमती तत्व विश्व के धर्म में जोड़ा, और वह तत्व था, कन्फेशन, स्वीकारोक्ति। पहले अपने पाप का स्वीकार, फिर पीछे प्रार्थना। ताकि कोई फासला न रह जाए। तुम नग्न और उघड़कर एक हो जाओ। कम से कम परमात्मा से तो पूरी बात कह दो। कम से कम उसके सामने तो वही हो जाओ, जो तुम हो ! सारी दुनिया में तो धोखा हम चलाते हैं। जो हम नहीं होते, वैसा दिखाते हैं। कमजोर आदमी सड़क पर अकड़कर चलता है। हालांकि सब अकड़ कमजोर आदमी की गवाही देती है । ताकतवर आदमी क्यों अकड़कर चलेगा? किससे अकड़कर चलेगा? कमजोर आदमी अकड़कर चलता है। निर्बल आदमी साहस की बातें करता है। कुरूप आदमी सौंदर्य के प्रसाधनों का उपयोग करता है। इसलिए दुनिया जितनी कुरूप होती जाती है, उतने सौंदर्य के साधन की ज्यादा जरूरत पड़ती है। क्योंकि वह कुरूपता को छिपाना है सब तरफ से । स्त्रियों को कुरूपता का बोध ज्यादा भारी है। क्योंकि शरीर का बोध थोड़ा पुरुष से ज्यादा है; बाडी कांशसनेस थोड़ी ज्यादा है। तो वे अपने बैग में ही सब सामान लिए हुए हैं। वहीं उनका सारा सौंदर्य उस बैग में बंद है। जरा मौका मिला कि उनको फिर अपने को तैयार कर लेना है! अपने पर जरा भरोसा नहीं है। वह जो बैग में थोड़ा-सा सामान पड़ा है, उस पर सारा भरोसा है। एक पतली पर्त है सौंदर्य की, जिसके पीछे कुरूपता अपने को ओट में लेती है। हम दुनिया को तो धोखा दे रहे हैं। पर यह धोखा क्या परमात्मा | के पास भी ले जाइएगा ? क्या वहां भी इसी धोखे की शक्ल को, इसी मास्क, इसी मुखौटे को लेकर खड़े होंगे? क्या वहां भी परमात्मा को दिखलाने की कोशिश करेंगे वह, जो कि आप नहीं हैं ? तो फिर एकीभाव न रहा। फिर प्रेम नहीं है, प्रार्थना नहीं है। कृष्ण कहते हैं, एकीभाव को उपलब्ध हुआ, जो छिपाता ही नहीं कुछ । जैसे छोटा बच्चा बगल के मकान से फल चुराकर खा आया है। और दौड़ता चला आ रहा है अपनी मां को कहने, कि देखा, आज पड़ोसी के घर में घुस गया और फल खाकर चला आ रहा हूं! ऐसा सरल, इतना इनोसेंट, जो परमात्मा के सामने अपने को बिलकुल | प्रकट कर देता है, तो एकीभाव निर्मित होता है; नहीं तो एकीभाव निर्मित नहीं होता । एक आदमी अपने विवाह का पच्चीसवां वर्ष दिन मना रहा था; | पच्चीस वर्ष पूरे हो गए थे। एक मित्र ने उससे पूछा कि पच्चीस वर्ष तुम पति और पत्नी दोनों इतनी शांति से साथ रहे हो; तुम दोनों के बीच भी कुछ ऐसी बातें हैं क्या, जो तुम्हारी पत्नी तुम्हारे बाबत न जानती हो, और तुम तुम्हारी पत्नी के बाबत न जानते हो? उस आदमी ने कहा कि ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जो पत्नी सोचती | है कि उसके बाबत मुझे पता नहीं हैं, हालांकि मुझे पता हैं। और इसीलिए मैं सोचता हूं, ऐसी भी बहुत-सी बातें जरूर होंगी, जो मैं सोचता हूं, मेरी पत्नी को पता नहीं हैं, लेकिन उसे पता हैं। अगर तुम सच ही पूछ रहे हो, तो ये पच्चीस साल हम साथ रहे, यह कहना कठिन है। हम इन पच्चीस सालों में अपने-अपने मुखौटों को सम्हालने में लगे रहे। हम एक-दूसरे को वह दिखाने की कोशिश करते रहे हैं, जो हम नहीं हैं। और यही हमारा दुख है, यही हमारी पीड़ा है, यही हमारी परेशानी है। हालांकि पच्चीस साल जिसके साथ रहो, वह सब जान लेता है; मुखौटे के पीछे जो छिपा है, उसको भी जान लेता है। क्योंकि कभी | नींद में मुखौटा उखड़ जाता है। कभी क्रोध में उतर जाता है। कभी बाथरूम से एकदम जल्दी से बाहर निकल आए; खयाल न रहा, 403
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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