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________________ अनन्य निष्ठा > नहीं; आज इसका कोई उपाय नहीं है कि हम कोशिश करके बोलने और सुनने वाले भी खड़े हों। और अक्सर ऐसे ही खड़े होते संशय को छोड़ दें। आज कोशिश करके संशय नहीं छोड़ा जा | हैं, अपनी रक्षा में तत्पर! दोनों के द्वार बंद। आवाज गूंजती है, सकता। आज तो आप संशय पूरी तरह से कर लें, तो ही संशय | संवाद नहीं होता। शब्द बिखर जाते हैं, कोई प्रतीति नहीं आती। छूट सकता है। . . बहुत सुना जाता है, कुछ पल्ले नहीं पड़ता; सब खाली-खाली रह इतना पूरी तरह से संशय कर लें कि थक जाएं, एक्झास्टेड; ऊब | जाता है। जाएं, घबड़ा जाएं। और संशय इतना कर लें कि कहीं न पहुंचे यह शर्त कीमती है। और यह शर्त इसलिए है कि कृष्ण कुछ ऐसी सिवाय नर्क के, दुख ही दुख चारों तरफ खड़ा हो जाए। इतना संशय | बात कहना चाहते हैं अर्जुन से, जो तर्क और संशय से भरे चित्त को कर लें कि कांटे ही कांटे संशय के सब तरफ से छिद जाएं और | | नहीं कही जा सकती। सिर्फ उसे ही कही जा सकती है, जो बिलकुल भीतर जिंदगी में कोई सुख का फूल न खिले। संशय कर लें पूरा, | खुलकर बैठा है, ओपन। जिसकी कोई क्लोजिंग नहीं है। जिसका टोटल। तो शायद, तो शायद संशय से ऊब जाएं और पार हो जाएं। कोई डिफेंस, जिसकी कोई सुरक्षा नहीं है। जो इतने भरोसे से भरा तो शायद संशय किसी क्षण में गिर जाए और आप बाहर हो जाएं। | है कि अगर उसकी छाती में छुरा भी भोंक दो, तो वह उस छुरे को और वह निःसंशय स्थिति बन जाए, जो कृष्ण कहते हैं, पहली शर्त | | भी स्वीकार कर लेगा। अनन्य प्रेम, छाती में छुरा भी भोंक दो, तो है। और इतना निःसंशय हो जा अर्जुन, तू फिर इतना निःसंशय होकर | | स्वीकार कर लेगा। और सोचेगा कि मेरे हित में होगा, इसीलिए। मझेसन। | जो अपनी छाती में छुरा लेने को तैयार है, उसी की छाती में सत्य बड़ी मजे की बात है। सुनने के लिए इतनी शर्त! कहते हैं, इतना | भी प्रवेश करते हैं। निःसंशय होकर, इतना अनन्य होकर फिर तू मुझे सुन। अगर ___ कबीर ने कहा है, जो घर बारे आपना, चले हमारे संग। तैयारी सुनने के ऊपर इतनी शर्त है, तब तो हममें से कोई भी सुनने में | | हो अगर अपने घर को जला डालने की, तो आओ मेरे साथ। समर्थ नहीं है। कौन-सा घर? कबीर ने किसी का घर कभी जलवाया नहीं। एक हम सब सोचते हैं कि हम सब सुनने में समर्थ हैं, क्योंकि कान | और घर है हमारे चारों तरफ सुरक्षा का, जैसे कि सिपाही अपने हमारे पास हैं। क्योंकि ध्वनि हमारे कान में पहुंच जाती है, तो हम | चारों तरफ जिरह-बख्तर बांधकर युद्ध के मैदान पर जाता है। हम समझते हैं, हम सुनने में समर्थ हैं। हम सब सुनने में समर्थ नहीं हैं। सब भी एक बड़ा जिरह-बख्तर अपने चारों तरफ बांधे हुए तैयार कान पर आवाज पड़ती है जरूर, ध्वनि पैदा होती है जरूर, लेकिन रहते हैं कि कहीं कोई ऐसी बात प्रवेश न कर जाए कि हमारी सुरक्षा सनना और आंतरिक घटना है। खतरे में पड़ जाए। कहीं कोई ऐसा सत्य भीतर न चला जाए कि कृष्ण कहते हैं, इतनी शर्त तू पूरी कर, अनन्य भाव से भर जा; | हमारी जिंदगी हमें बदलनी पड़े। कहीं कोई ऐसी प्रेरणा न मिल जाए असंशय निष्ठा हो तेरी मुझमें, तो तू मुझे सुन पाएगा। फिर सुन! कि हमें कुछ और होना पड़े। कहीं कोई हमारा जो इस्टैब्लिश्ड, क्योंकि फिर मैं तुझे राज खोल सकता हूं वे, जो बुद्धि के लिए नहीं | | हमारा जो व्यवस्थित जगत है, उसमें कोई गड़बड़ न हो जाए। खोले जा सकते। फिर मैं वे रहस्य खोल सकता हूं तेरे समक्ष, जो | एक मित्र परसों मेरे पास आए थे। उन्होंने कहा कि मैं आपकी केवल हृदय के समक्ष खोले जाते हैं, तर्क के समक्ष नहीं खोले | बात सुनने आना चाहता हूं, लेकिन जब से आपने संन्यास की बात जाते। फिर मैं तुझसे कह सकूँगा वह आंतरिक बात, जो केवल प्रेम | की है, तब से मन में भय लगता है। क्या भय की बात है? उन्होंने में ही कही जाती है, जो विवाद में नहीं कही जाती। कहा, भय लगता है कि कहीं किसी दिन मुझे भी समझ में आ जाए __ और जिंदगी में गहरे जो सत्य हैं, वे विवाद में नहीं कहे जाते। वे | | कि संन्यास लेना है, तो फिर क्या होगा? प्रेम में ही कहे जा सकते हैं। एक सिम्पैथेटिक एटीटयूड, एक | | अब ये आदमी अगर मुझे सुनने आए होंगे—जरूर आए होंगे, सहानुभूति से भरे हुए हृदय से ही कहे जा सकते हैं। जीवन के जो सदा आते हैं तो जिरह-बख्तर बांधकर बैठे होंगे कि कहीं कोई भी गहन सत्य हैं, वे अनन्य भावदशा में ही कहे जा सकते हैं, | | बात भीतर न चली जाए। कैसा मजा है! बात सुननी भी है और क्योंकि तभी कम्युनिकेशन, तभी एक बात दूसरे तक पहुंचती है। भीतर नहीं भी जाने देनी है, तो व्यर्थ मेहनत क्यों करनी? मत सुनें, अन्यथा हम, जैसे युद्ध के मैदान पर सिपाही खड़े होते हैं, ऐसे बेहतर है। सुनें, तो फिर भीतर प्रवेश करने दें। 325
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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