SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 350
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-3 मुसीबत की दुनिया में यात्रा पर भेज दिया। वह बच्चा भाग गया। उस बच्चे ने जो अपने संस्मरण लिखे हैं, उसमें से एक बात इस संबंध में आपसे कहना चाहता हूं। जिप्सियों के पास कोई मकान नहीं हैं। घुमक्कड़ कौम है, खानाबदोश। यह खानाबदोश शब्द अच्छा है। इसका मतलब होता है, जिसका मकान खुद के कंधे पर है – खानाबदोश । दोश यानी कंधा, खाना यानी मकान। और जिसके कंधे पर ही अपना मकान है, उसको कहते हैं खानाबदोश । तो जिप्सियों का तो कोई घर नहीं है। आज इस गांव में, कल दूसरे गांव में, परसों तीसरे गांव में घुमक्कड़ कौम है। निश्चित ही, प्राइवेसी की कोई धारणा जिप्सियों में नहीं है, एकांत की । हो नहीं सकती। रात खुले आकाश के नीचे सोते हैं सब । एकांत का कोई सवाल भी नहीं है। प्रेम भी करना हो, तो खुले आकाश के नीचे ही करना पड़ेगा। कोई उपाय नहीं है। यह बच्चा पहले ही दो-चार - आठ दिनों में जब जिप्सियों के साथ रहा, तो उसे जब भी पेशाब करनी हो, तो वह अकेले में जाकर किसी वृक्ष के नीचे बैठ जाए। जिप्सी बच्चों ने उसे बहुत बुरा माना और कहा कि तुम बहुत गलत बात करते हो ! उसने कहा, इसमें कौन-सी गलत बात है? उन बच्चों ने कहा, यह बिलकुल गलत बात है। सब काम बांटकर करने चाहिए। उसने कहा, अजीब पागलपन की बात कर हो! इसको कैसे बांटा जा सकता है? उन्होंने कहा, हम भी साथ दे सकते हैं, हम भी कोआपरेट कर सकते हैं। जब तुम जाते हो, हमसे भी कह सकते हो कि तुम भी चलो। लेकिन तुम अकेले ही चले जाते हो ! उस बच्चे ने कहा, लेकिन हमारे घर में तो बाथरूम होता है। और हम अंदर जाकर बंद करके ही अपनी शंका का निवारण करते हैं। वे जिप्सी बच्चे बहुत हंसे। वे बोले, कैसे नासमझ हो तुम सब ! क्योंकि कोई भी आदमी उठकर बाथरूम में जाएगा, तो सबको पता है कि वह क्या करने गया! जब पता ही है, तो छिपाने का फायदा क्या है! इस बच्चे को बड़ी कठिनाइयां आईं, क्योंकि इसकी समझ में ही न आए। क्योंकि जिप्सियों के सोचने का ढंग और उनके संस्कार और। ग्रुप माइंड ! इंडिविजुअल का कोई सवाल नहीं है, व्यक्ति का कोई सवाल नहीं है, समूह मन है। जो भी आएगा, बांटकर खाएंगे। जो भी मुसीबत होगी, उसको भी बांट लेंगे। जो भी सुख आएगा, उसको भी बांट लेंगे। साथ जीएंगे। तो खयाल ही नहीं है कि कोई आदमी व्यक्तिगत कोई काम भी कर सकता है। तो बच्चों को सवाल उठा कि तुम व्यक्तिगत जाकर कोई काम कैसे कर सकते हो ? यह असंभव है। हमारे मन में वही सवाल उठते हैं, जो हमारा संस्कार हो जाता है। जैसे जिप्सियों के साथ रहकर इस बच्चे को पता चला कि चोरी वे बुरा नहीं मानते हैं। हां, उस चोरी को बुरा मानते हैं, जिसको कोई संग्रह करे। जैसे कोई आदमी चोरी कर लाए और संग्रह कर ले, चुपचाप छिपा ले और सबको न बांटे, तो उसे बुरा मानते हैं। या कोई ऐसी चीज चुरा लाए, जिसका आज उपयोग न हो, छः महीने बाद उपयोग हो, तो उसको भी बुरा मानते हैं। लेकिन कोई आदमी जाकर खेत से घास तोड़ लाए, तो जिप्सी उसे बुरा नहीं मानते। और जब पहली दफा इस बच्चे के सामने पुलिस आई और जिप्सियों को पकड़ा, क्योंकि उन्होंने अपने घोड़ों के लिए किसी खेत से घास काट लिया था। तो जिसने काटा था, उसने कहा कि इसमें चोरी कहां है? घास तुम तो नहीं बढ़ाते; परमात्मा बढ़ाता है । जमीन परमात्मा की, आकाश परमात्मा का, सूरज परमात्मा का, घोड़े परमात्मा के, तुम परमात्मा के, हम परमात्मा के । तुमने कोई घास तो बढ़ाया नहीं ! हां, अगर हम घास इकट्ठा कर रहे हों, घोड़ों को खिलाने से ज्यादा इकट्ठा कर रहे हों, तो हम जुर्मी हैं। लेकिन इसमें चोरी कैसी ? जिप्सी को समझ में नहीं आता कि इसमें चोरी कैसी। क्योंकि व्यक्तिगत संपत्ति की धारणा उसके मन में नहीं है। व्यक्तिगत संपत्ति जैसी कोई चीज ही नहीं है। धारणा भी कैसे होगी? हमारे मन में खयाल उठता है, चोरी हो गई, क्योंकि हमारा संस्कार है एक । आज हम सारी दुनिया में विज्ञान का संस्कार दे रहे हैं बच्चों को । हम सबके मन में संदेह का संस्कार है। संशय हमारे द्वार पर खड़ा है। संशय के बिना हम एक कदम चलते नहीं। लेकिन कृष्ण ने जब यह शिक्षा दी, तब आदमी के द्वार पर संशय की जगह श्रद्धा थी । पूरा द्वार बदल गया, आदमी वही है। इसलिए आप जब गीता को पढ़ते हैं, आपके काम नहीं पड़ेगी। | क्योंकि आपके दरवाजे पर जो पहरेदार खड़ा है, वह बिलकुल बदल गया है। वह गीता को भीतर प्रवेश ही न करने देगा | आप रट भी लेंगे, कंठस्थ भी कर लेंगे, दोहराने भी लगेंगे, लेकिन हृदय के भीतर गीता का कोई प्रवेश न होगा। क्योंकि वह प्रवेश तभी हो सकता है, जब कृष्ण की शर्त पूरी हो । वे कहते हैं, असंशय! | लेकिन असंशय कैसे आएगा? क्या मैं जबर्दस्ती कोशिश कर लूं कि संशय को छोड़ दूं? 324
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy