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कृष्ण का संन्यास, उत्सवपूर्ण संन्यास -
कृष्ण कहते हैं, सब संकल्प छोड़ दे, वही योगी है, वही कृष्ण बिलकुल उलटी बात कहते हैं। वे कहते हैं, संकल्पों को संन्यासी है।
| जो छोड़ दे बिलकुल। संकल्प को जो छोड़ दे, वही प्रभु को संकल्प तभी छूटेंगे, जब कुछ पाने का खयाल न रह जाए। नहीं | उपलब्ध होता है। संकल्प को छोड़ने का मतलब हुआ, समर्पण हो तो संकल्प जारी रहेंगे। मन चौबीस घंटे संकल्प के आस-पास जाए। कह दे कि जो तेरी मर्जी। मैं नहीं है। समर्पण का अर्थ है कि अपनी शक्ति इकट्ठी करता रहता है। जो इच्छाएं संकल्प के बिना | जो हारने को, असफल होने को राजी हो जाए। रह जाती हैं, वे इंपोटेंट, नपुंसक रह जाती हैं। हमारे भीतर बहुत __ध्यान रखें, फलाकांक्षा छोड़ना और असफल होने के लिए राजी इच्छाएं पैदा होती हैं। सभी इच्छाएं संकल्प नहीं बनतीं। इच्छाएं | होना, एक ही बात है। असफल होने के लिए राजी होना और बहुत पैदा होती हैं, फिर किसी इच्छा के साथ हम अपनी ऊर्जा को, फलाकांक्षा छोड़ना, एक ही बात है। जो जो भी हो, उसके लिए अपनी शक्ति को लगा देते हैं, तो वह इच्छा संकल्प हो जाती है। राजी हो जाए; जो कहे कि मैं हूं ही नहीं सिवाय राजी होने के,
निष्क्रिय पड़ी हुई इच्छाएं धीरे-धीरे सपने बनकर खो जाती हैं। एक्सेप्टिबिलिटी के अतिरिक्त मैं कुछ भी नहीं हूं। जो भी होगा, जिसके पीछे हम अपनी शक्ति लगा देते हैं, अपने को लगा देते हैं, उसके लिए मैं राजी हूं। ऐसा ही व्यक्ति संन्यासी है। वह इच्छा संकल्प बन जाती है।
___ तो संन्यासी का तो अर्थ हुआ, जो भीतर से बिलकुल मिट जाए; संकल्प का अर्थ है, जिस इच्छा को पूरा करने के लिए हमने | जो भीतर से बिलकुल मर जाए.। संन्यास एक गहरी मृत्यु है, एक अपने को दांव पर लगा दिया। तब वह डिजायर न रही, विल हो बहुत गहरी मृत्यु। गई। और जब कोई संकल्प से भरता है, तब और भी गहन खतरे ___ एक मृत्यु से तो हम परिचित हैं, जब शरीर मर जाता है। लेकिन में उतर जाता है। क्योंकि अब इच्छा, मात्र इच्छा न रही कि मन में | वह मृत्यु नहीं है। वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि फिर मन नए शरीर उसने सोचा हो कि महल बन जाए। अब वह महल बनाने के लिए | निर्मित कर लेता है। वह सिर्फ वस्त्रों का परिवर्तन है। वह सिर्फ जिद्द पर भी अड़ गया। जिद्द पर अड़ने का अर्थ है कि अब इस इच्छा | पुराने घर को छोड़कर नए घर में प्रवेश है। के साथ उसने अपने अहंकार को जोड़ा। अब वह कहता है कि | । इसलिए जो जानते हैं, वे मृत्यु को मृत्यु नहीं कहते, सिर्फ नए अगर इच्छा पूरी होगी, तो ही मैं हूं। अगर इच्छा पूरी न हुई, तो मैं | | जीवन का प्रारंभ कहते हैं। जो जानते हैं, वे तो योग को मृत्यु कहते बेकार हूं। अब उसका अहंकार इच्छा को पूरा करके अपने को सिद्ध हैं। वे तो संन्यास को मृत्यु कहते हैं। करने की कोशिश करेगा। जब इच्छा के साथ अहंकार संयुक्त होता __वस्तुतः आदमी भीतर से तभी मरता है, जब वह तय कर लेता है है, तो संकल्प निर्मित होता है।
कि अब मेरा कोई संकल्प नहीं, मेरी कोई फल की आकांक्षा नहीं, अहंकार, मैं, जिस इच्छा को पकड़ लेता है, फिर हम उसके पीछे मैं नहीं। जैसे ही कोई व्यक्ति यह कहने की हिम्मत जुटा लेता है कि पागल हो जाते हैं। फिर हम सब कुछ गंवा दें, लेकिन इस इच्छा | | अब मैं नहीं हूं, तू ही है, उस क्षण महामृत्यु घटित होती है। को पूरा करना बंद नहीं कर सकते। हम मिट जाएं। अक्सर ऐसा और ध्यान रहे, उस महामृत्यु से ही महाजीवन का आविर्भाव होता है कि अगर आदमी का संकल्प पूरा न हो पाए, तो आदमी होता है। जैसे बीज टूटता है, तो अंकुर बनता है, वृक्ष बनता है। आत्महत्या कर ले। कहे कि इस जीने से तो न जीना बेहतर है। अंडा टूटता है, तो उसके भीतर से जीवन बाहर निकलता है; पंख पागल हो जाए। कहे कि इस मस्तिष्क का क्या उपयोग है ! संकल्प। फैलाता है, आकाश में उड़ जाता है। ऐसे ही हम भी एक बंद बीज
लेकिन साधारणतः हम सभी को सिखाते हैं संकल्प को मजबूत हैं, अहंकार के सख्त बीज। जब अहंकार की यह पर्त टूट जाए और करने की बात। अगर स्कूल में बच्चा परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पा रहा यह बीज की खोल टूट जाए, तो ही हमारे भीतर से एक महाजीवन है, तो शिक्षक कहता है, संकल्पवान बनो। मजबूत करो संकल्प का पक्षी पंख फैलाकर उड़ता है विराट आकाश की ओर। को। कहो कि मैं पूरा करके रहूंगा। दांव पर लगाओ अपने को। लेकिन हम तो इस बीज को बचाने में लगे रहते हैं। हम उन अगर बेटा सफल नहीं हो पा रहा है, तो बाप कहता है कि संकल्प पागलों की तरह हैं, जो बीज को बचाने में लग जाएं। बीज को की कमी है। चारों तरफ हम संकल्प की शिक्षा देते हैं। हमारा पूरा बचाने से कुछ होगा? सिर्फ सड़ेगा। बीज को बचाना पागलपन है। तथाकथित संसार संकल्प के ही ऊपर खड़ा हुआ चलता है। बीज बचाने के लिए नहीं, तोड़ने के लिए है। बीज मिटाने के लिए