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प्रश्नः भगवान श्री, योग के अभ्यास और उसकी आवश्यकता पर बात चल रही थी। आपने समझाया था कि धर्म और आत्मा तो हमारा स्वभाव ही है। उसे उपलब्ध नहीं करना है, वह मिला ही हुआ है। लेकिन योग का अभ्यास अशुद्धि को काटने के लिए करना पड़ता है। कृपया योगाभ्यास से अशुद्धि कैसे कटती है, इस पर कुछ कहें।
भाव कहते हैं उसे, जो हमें मिला ही हुआ है। जिसे हम
स्व चाहें तो भी खो नहीं सकते। जिसे खोने का कोई उपाय
नहीं है। स्वभाव का अर्थ है, जो मेरा होना ही है, जो हमारा अस्तित्व ही है।
जो जानते हैं, वे कहते हैं कि हमारा स्वभाव स्वयं परमात्मा होना है। ऐसा कोई एक नहीं कहता; इस पृथ्वी पर कोने-कोने में, अलग-अलग सदियों में, अलग-अलग स्थानों पर जब भी किसी
ने
जाना उसने यही कहा है। यह निरपवाद घोषणा है। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं हुआ है मनुष्य के इतिहास में जिसने कहा हो कि मैंने जान लिया भीतर जाकर और मनुष्य के भीतर परमात्मा नहीं है। जिन्होंने कहा है, परमात्मा नहीं है, वे कभी भीतर नहीं गए। और
भीतर गए हैं, उन्होंने सदा कहा है कि परमात्मा है। अगर कोई सत्य निरपवाद सत्य हो सकता है, तो वह एक सत्य यही है कि मनुष्य का स्वभाव परमात्मा ही है।
लोग परमात्मा को खोजते हैं। कभी खोज न पाएंगे, क्योंकि खोजा उसे जा सकता है जिसे खोया हो। असल में जो खोजने निकला है, वह स्वयं ही परमात्मा है, इसलिए खोज कैसे पाएगा? हम अगर परमात्मा से अलग होते, तो कहीं न कहीं उसे खोज ही ad, कहीं न कहीं मुठभेड़ हो ही जाती, कहीं न कहीं आमने-सामने पड़ ही जाते। लेकिन हम स्वयं ही परमात्मा हैं। इसलिए परमात्मा को खोजने निकला है, उसे अभी पता ही नहीं कि वह जिसे खोज रहा है, वह उसका स्वयं का ही होना है।
यह तो हमारा स्वभाव है, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, लेकिन आश्चर्य कि इसे भी हम खोए हुए मालूम पड़ते हैं, अन्यथा खोजते ही क्यों! खो तो नहीं सकते, फिर कुछ और हो सकता है, जो खोने से मिलता-जुलता है। वह है विस्मरण, वह है फारगेटफुलनेस। स्वभाव को खोया नहीं जा सकता, लेकिन स्वभाव को भूला जा
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सकता है। विस्मरण किया जा सकता है। यद्यपि विस्मरण के समय | में भी कुछ बदलाहट नहीं होगी; हम जो थे, वही होंगे। लेकिन फिर भी हम जो हैं, वह हम अपने को समझ नहीं पाएंगे।
परमात्मा सिर्फ विस्मृत है।
योग की क्या जरूरत है जब परमात्मा स्वभाव है? योग की जरूरत है इस विस्मरण को तोड़कर स्मरण को पुनर्स्थापित करने के लिए। यह जो फारगेटफुलनेस है, यह जो भूल जाना है; इस भूल जाने की व्यवस्था को तोड़ देने के लिए योग का प्रयोग है।
ठीक से समझें, तो योग का समस्त प्रयोग निगेटिव है, नकारात्मक है। वह किसी चीज को पाने के लिए नहीं, कोई चीज | बीच में अटकाव बन गई है, उसे तोड़ने के लिए है। योग से कोई नई चीज निर्मित नहीं होगी ; योग से कोई नई उपलब्धि नहीं होगी ; योग से तो जो सदा-सदा से मिला ही हुआ है, वही पुनर्मरण होगा।
बुद्ध को जब ज्ञान हुआ, तो किसी ने बुद्ध से पूछा है कि आपने पाया क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे और उन्होंने कहा कि मत पूछो। ऐसा मत पूछो। क्योंकि मैंने पाया कुछ भी नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि फिर इतनी मेहनत व्यर्थ गई ? फिर लोग कहते हैं कि आपको मिल गया। तो मिला क्या है? आप कहते हैं, पाया नहीं ! बुद्ध ने कहा, अगर ठीक से कहूं, तो यही कह सकता हूं, मैंने कुछ खोया है, मैंने कुछ पाया नहीं।
तब तो स्वभावतः पूछने वाला और भी चकित हुआ। और उसने कहा, खोने के लिए इतनी मेहनत तो फल क्या है? अभिप्राय क्या है ? और अब आप उपदेश क्यों देते हैं ?
बुद्ध ने कहा, इसीलिए कि तुम भी कुछ खो सको। जो मैंने पाया है, अब मैं कह सकता हूं कि वह सदा ही मेरे भीतर था, सिर्फ मुझे पता नहीं था। इसलिए कैसे कहूं कि मैंने पाया ! था ही। इतना ही कह सकता हूं कि वह जो मेरे भीतर था, उसको भी जानने में कुछ बाधाएं मेरे भीतर थीं, उन बाधाओं को मैंने खोया । अज्ञान मैंने खोया है। और ज्ञान पाया है, ऐसा मैं नहीं कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। स्वयं को मैंने खोया है। लेकिन परमात्मा को मैंने पाया, ऐसा मैं न कह सकूंगा, क्योंकि वह था ही। लेकिन मेरी वजह से दिखाई नहीं पड़ता था। मेरे मैं की वजह से दिखाई नहीं पड़ता था । मेरी विस्मृति गहरी थी और दिखाई नहीं पड़ता था ।
योग है विस्मरण को काटने की विधि ।
विस्मरण क्यों है? विस्मरण के होने का भी कारण है। अकारण तो नहीं विस्मरण हो सकता । विस्मरण के होने का कारण है। तीन