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________________ गीता दर्शन भाग-3 उपनिषद में कथा है कि श्वेतकेतु वापस लौटा। तो उसके पिता होगा। तूने पूछा, नदियां कैसे बहती हैं, तो मैंने बताया होगा। तूने ने देखा कि श्वेतकेतु वापस लौट रहा है आश्रम से अध्ययन करके। | पूछा कि अन्न कैसे पचता है, तो मैंने बताया होगा। तूने जो पूछा, स्वभावतः, अकड़ उसमें रही होगी। जो भी थोड़ा-बहुत ज्ञान सीख वह मैंने तझे बताया। तने कभी यह पछा ही नहीं कि मैं कौन हं! ले, अकड़ पैदा होती है। श्वेतकेतु अकड़ता हुआ चला आ रहा है! और जब तक कोई स्वयं को न जान ले, तब तक वह ज्ञान नहीं सुबह सूरज निकला है और पिता श्वेतकेतु को आता हुआ | | मिलता, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। या जिसे जान लेने देखता है। सब कुछ जानकर लौट रहा है। अठारह शास्त्र, जो उन | | पर फिर जानने को कुछ शेष नहीं रह जाता है। दिनों प्रचलित थे, उन सबका ज्ञान लेकर आया है। अब अकड़ में तो कृष्ण कहते हैं, अब मैं वह रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन, और और कोई कमी नहीं है। अब तो पिता भी उसके सामने कुछ नहीं | पूरा ही बता दूंगा तुझे तीन-चार बातें कहते हैं-अब मैं वह जानता। जैसा कि सभी बच्चों को लगता है, जब वे थोड़ा-सा जान | रहस्य तुझसे कहूंगा अर्जुन। लेते हैं। उस दिन के भी बच्चे ऐसे ही थे, जैसे आज के बच्चे हैं। रहस्य, मिस्ट्री। कह सकते थे कि वह सत्य मैं तुझसे कहूंगा। श्वेतकेतु अकड़ से घर में प्रवेश किया। पिता ने उससे पूछा, तू लेकिन कहते हैं, वह रहस्य मैं तुझसे कहूंगा। क्योंकि उस रहस्य सब जानकर आ गया, ऐसा मालूम पड़ता है। उसने कहा कि को कहने के लिए सत्य शब्द भी छोटा है। और उसे सत्य नहीं कहा निश्चित ही। आप पूछ देखें। सब परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुआ। सब जानकर। क्योंकि उसे कितना ही जान लो, तब भी कभी दावा नहीं शास्त्र कंठस्थ हैं। गुरु ने जब प्रमाणपत्र दे दिया, तब मैं आया हूं। कर सकते कि जान लिया है। इसलिए कहा, रहस्य। पर उसके पिता ने पछा कि तने अपने गरु से वह भी जाना या नहीं. ! रहस्य का मतलब यह है. जानो. तो खद मिटते हो। और जानो. जिसको जान लेने से सब जान लिया जाता है? तो और मिटते हो। और जानो, तो और। और एक दिन आता है कि उसने कहा, वह क्या चीज है, जिसको जान लेने से सब जान जानना तो पूरा हो जाता है, लेकिन खुद बिलकुल नहीं रह जाते। लिया जाता है! ऐसी तो कोई चीज गुरु ने मुझे नहीं बताई, जिसको दावेदार खतम हो जाता है। वह जो क्लेम कर सकता था कि मैंने जान लेने से सब जान लिया जाता है। मैं तो वे ही चीजें जानकर आ जान लिया, सत्य मेरी मुट्ठी में है, वह बचता नहीं। न मुट्ठी बांधने रहा हूं, जिनको जान लेने से उन्हीं को जाना जाता है। सब का कोई वाला बचता है, न मुट्ठी बचती है। फिर जो बच रहता है, वह एक सवाल नहीं है! मिस्ट्री है, वह एक रहस्य है। तो पिता ने कहा, तू वापस जा। तू बेकार ही श्रम करके घर लौट इसलिए भी रहस्य कहा कि पूरी तरह जानकर भी, पूरी तरह आया। तेरी अकड़ ने ही मुझे कह दिया कि तू अज्ञानी का अज्ञानी परिचित होकर भी, वह ज्ञान तर्कबद्ध नहीं होता है। वह लाजिकल ही वापस आ रहा है। क्योंकि अकड़ अज्ञान का सबूत है। तू वापस नहीं है। वह एक रहस्य की भांति है; धुंधला है। जैसे सुबह, जब जा। तू शास्त्रों के बोझ से तो दब गया, लेकिन ज्ञान की किरण अभी सूरज नहीं निकला है, चारों तरफ कुहरा छाया हुआ है। चीजें तेरे जीवन में नहीं फटी। उसे जानकर आ. जिसे जान लेने के बाद रहस्यपूर्ण लगती हैं। या रात पूर्णिमा की चांदनी में, जब कि कहीं कुछ जानने को शेष नहीं रह जाता। वृक्षों के नीचे अंधेरा है, और कहीं धीमी चांदनी है, और सब वह बेचारा वापस लौटा, उदास। सब व्यर्थ हो गया, बरसों की रहस्यपूर्ण हो जाता है। एक मिस्ट, एक धुंध घेरे रहती है। मेहनत। गुरु से जाकर उसने कहा कि आपने भी क्या सिखाया! उस रहस्य में जब कोई पहुंचता है, तो एक गहन चांदनी रात में, पिता ने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है। और मैं तो यह मानकर | जहां सब चीजें रहस्यपूर्ण मालूम पड़ती हैं; कोई चीज अपने में पूरी लौटा कि सब जान लिया गया। और उन्होंने कहा है कि उसे जानकर नहीं मालूम पड़ती; प्रत्येक चीज किसी और चीज की तरफ इशारा आ, जिसे जान लेने से सब जान लिया जाता है। वह क्या है जिसे | करती है। गद्य की भांति नहीं है वह, पद्य की भांति है; काव्य की जान लेने से सब जान लिया जाता है? भांति है; जिसका ओर-छोर नहीं मिलता। जिसे एक तरफ से शुरू उसके गुरु ने कहा, वह तू स्वयं है। लेकिन तूने कभी मुझसे पूछा करें, तो दूसरा अंत नहीं आता। और जिसमें जितने भीतर प्रवेश ही नहीं कि मैं कौन हूं! तूने पूछा नहीं! तूने जो पूछा, वह मैंने तुझे | करें, उतनी ही पहेली बड़ी होती चली जाती है। बताया। तूने पूछा, आकाश में बादल कैसे बनते हैं, तो मैंने बताया | इसलिए नहीं कहा कि तुझे सत्य कहूंगा। कहा कि तुझे कहूंगा 328
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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