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________________ आध्यात्मिक बल - सृजन में पुरुष तो सांयोगिक है, एक्सिडेंटल है; स्त्री आधारभूत है। चाहिए, लहरों के दर्शन करके आ रहा हूं। सागर तो दिखाई नहीं लेकिन कृष्ण ने स्त्री की बात नहीं की, जानकर, क्योंकि पुरुष में | पड़ता। दिखाई तो लहरें पड़ती हैं। फिर भी आप कहते हैं कि सागर स्त्री सम्मिलित हो गई है। अगर नगर की बात करते, तो फासला | का दर्शन करके आ रहा हूं। इसी खयाल से कि लहर की क्या था स्त्री और पुरुष का। वे तो उसकी बात कर रहे हैं, जो नगर के | | गिनती करनी! लहर तो आप देख भी नहीं पाए और मिट गई होगी, बीच में बसा है। स्त्री के भीतर भी वह पुरुष है; पुरुष के भीतर भी | | और दूसरी बन गई। जो मिट गई लहर, उसमें भी जो था, और जो वह पुरुष है। बन गई लहर, उसमें भी जो है हालांकि वह आपको दिखाई नहीं फिर भी पुरुष की बात नहीं कर रहे हैं। कह रहे हैं, पुरुषों में | | पड़ा है। लेकिन आप खबर यही देते हैं कि मैं सागर के दर्शन करके पुरुषत्व। जैसे कि हजारों फूल को निचोड़कर हम थोड़ा-सा इत्र बना आ रहा हूं। लें। ऐसा ही समस्त पुरुष जहां-जहां हैं, उनके भीतर जो पुरुषत्व | तो कृष्ण लहरों की बात नहीं कर रहे हैं; वे सागर की बात कर है, वह जो निचोड़ है, वह जो इत्र है, वह मैं हूं। | रहे हैं। वे पुरुषों की बात नहीं कर रहे, पुरुषत्व की बात कर रहे हैं। यह भी सोचने जैसा है। क्योंकि जब हम कहते हैं पुरुष, तो एक | | जिसके ऊपर सारा खेल निर्मित होता है। एक रूप, दूसरा रूप, पर्टिक्युलर, एक विशेष व्यक्तित्व का खयाल आता है। जब हम | | हजार रूप वह पुरुषत्व लेता चला जाता है; और फिर भी अरूप कहते हैं पुरुषत्व, तो युनिवर्सल, सार्वभौम सत्य का खयाल आता | | है। न मालूम कितने आकार बनते हैं और विसर्जित होते हैं, फिर है। जब हम कहते हैं पुरुष, तो सीमा बनती है; और जब हम कहते | भी वह निराकार है। हैं पुरुषत्व, तो असीम हो जाता है। तो पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं! __ यूनान में प्लेटो ने जिसे आइडिया कहा है, प्रत्यय कहा है। इस सूत्र में भी उन्होंने कुछ बातें कही हैं, और कुछ कीमती बातें पुरुषत्व एक प्रत्यय है, एक आइडिया है। जब हम कहते हैं प्रेमी, कही हैं। कहा है, वासना से रहित, काम से रहित वीरों का वीर्य हूं। तो एक सीमा बन जाती है। लेकिन जब हम कहते हैं प्रेम, तो सब | वासना से रहित, कामना से रहित वीरत्व हूं, वीरता हूं। सीमाएं टूट जाती हैं, तब असीम हो जाता है सब। जब हम कहते __ आदमी वासना में डूबकर बड़े वीरता के कार्य कर सकता है। हैं पुरुष, तो एक रेखा खिंच जाती है चारों ओर। जब हम कहते हैं | | लेकिन कृष्ण कह रहे हैं कि मनुष्य के भीतर वह जो वीर्य की ऊर्जा पुरुषत्व, तो विराट आकाश की तरह सब विस्तीर्ण हो जाता है। । घटित होती है, मैं तब वह हूं, जब वहां काम न हो, वासना न हो। पुरुषत्व की कोई सीमा नहीं है। पुरुष आएंगे और जाएंगे, पुरुष । आपको खयाल दिलाना चाहूंगा। महावीर का जन्म का नाम बनेंगे और मिटेंगे। परुषत्व तो शाश्वत है। शक्लें बदलेंगी. घर वर्द्धमान था। बाद में दिया गया नाम. महावीर और महावीर नाम बदलेंगे, नगर बसेंगे और उजड़ेंगे। आज आपका एक नाम है, दिया गया, उस वीरता की वजह से, जिसकी कृष्ण चर्चा कर रहे हैं। पिछले जन्म में दूसरा था, अगले जन्म में और तीसरा होगा। | महावीर किसी से लड़े नहीं। लड़ने की बात दूर, पांव फूंककर रखा कितने-कितने पुरुष होने का आपको खयाल पैदा होगा कि मैं यह कि कोई चींटी न दब जाए। किसी से कोई स्पर्धा न की, किसी से हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं। लेकिन भीतर वह जो निर्गुण, वह जो भीतर | कोई प्रतियोगिता न की। कैसी वीरता है उनकी? निराकार है, वह एक है। अगर महावीर को हम देखेंगे, तो उनके चारों तरफ कोई भी तो इसलिए भी कहा पुरुषत्व। जब हम लहरों की बात करते हैं, तो | घटना घटती हुई मालूम नहीं पड़ती, जिसमें कि वीरता का पता अक्सर डर होता है कि सागर कहीं भूल न जाए। कृष्ण यह कह रहे | चलता हो। न युद्ध के मैदान पर लड़ते हैं, न तलवारों-भालों के हैं कि लहरों में मैं सागर। लहर भला दिखाई पड़ती हो, लेकिन सिर्फ | बीच में खड़े होते हैं। कैसे वीर होंगे! लेकिन इस मुल्क ने उनकों दिखाई पड़ती है, एपियरेंस है, सिर्फ एक आभास है। सत्य तो | महावीर कहा। इस मुल्क ने इस सूत्र की वजह से महावीर कहा। सागर है, जो नीचे है। वासना बिलकुल नहीं है, फिर एक वीर्य का नव उदय हुआ है। उस बड़ी मजे की बात है, सागर के किनारे जाएं, तो लहरें ही दिखाई वीर्य को हम थोड़ा पहचानें कि वह कैसा है। पड़ती हैं, सागर कभी दिखाई नहीं पड़ता। अक्सर आप कहते हैं कि __महावीर साधना में लगे। कठोर तपश्चर्या में डूबे। भूल गए मैं सागर के दर्शन करके आ रहा हूं। लेकिन गलत कहते हैं। कहना जगत को, याद रखा अपने को ही। नग्न खड़े होते थे गांव के बाहर। 365
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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