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- गीता दर्शन भाग-3>
बीजं मां सर्वभूतानां विद्धि पार्थ सनातनम् । | है; लेकिन अंगुली चांद की तरफ इशारा कर सकती है। लेकिन यह बुद्धिबुद्धिमतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।। १० ।। इशारा उसी की समझ में आएगा, जो अंगुली को छोड़ दे और भूल
बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् । जाए, और चांद की तरफ देखे। और मैंने अंगुली उठाई चांद की धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ।।११।। तरफ, और आपने सोचा कि शायद मैं अंगुली उठा रहा हूं, तो हे अर्जुन, तू संपूर्ण भूतों का सनातन कारण मेरे को ही अंगुली में कुछ होगा। और आप मेरी अंगुली से अटक गए, तो जान । मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूं। आप चांद तक कभी भी न पहुंच पाएंगे।
और हे भरत श्रेष्ठ, मैं बलवानों का आसक्ति और अंगुली चांद को बताती है, चांद नहीं है। उसे छोड़ ही देना कामनाओं से रहित बल अर्थात सामर्थ्य हूं, और सब भूतों में पड़ेगा। उसे भूल ही जाना पड़ेगा। उसे तो बिलकुल पीछे छोड़कर धर्म के अनुकूल अर्थात शास्त्र के अनुकूल काम हूं। जब आंख आकाश की तरफ उठेगी, वहां तो कोई अंगुली न होगी,
वहां तो चांद होगा।
तो कृष्ण ये जो बातें कह रहे हैं, वे अंगुलियां हैं। अधूरे इशारे 17 रमात्मा स्वयं अपना परिचय देना चाहे, तो निश्चित ही हैं, आंशिक। उनमें सूचना है। जो उनको पकड़ लेगा, वह खतरे में प बड़ी कठिन बात है। आदमी भी अपना परिचय देना | | पड़ेगा। जो उनको छोड़ देगा, उनके ऊपर उठेगा, पार जाएगा, वह
चाहे, तो कठिन हो जाती है बात। और परमात्मा । | इशारे को समझने में समर्थ हो सकता है। अपना देना चाहे, तो और भी कठिन हो जाती है।
कल रात्रि भी उन्होंने कुछ इशारे किए। उसमें एक इशारा छूट एक तो इसलिए कठिन हो जाती है कि परमात्मा भी अपना स्वयं | गया था, वह भी हम बात कर लें। परिचय दे, तो सदा ही अधूरा होगा; पूरा नहीं हो सकता। अस्तित्व उन्होंने कहा, पुरुषों में मैं पुरुषत्व हूं। इतना विराट है, और शब्द इतने छोटे पड़ जाते हैं। परमात्मा भी पुरुषों में पुरुषत्व, पुरुष नहीं। पुरुषत्व क्या है? यह संस्कृत का कहना चाहे, तो कहकर पाएगा कि जो कहना था, वह नहीं कहा जा | शब्द बहुत कीमती है। और इस शब्द की थोड़ी-सी पर्तों को सका है। कहना चाहा था, वह छूट गया है। और जो कहा गया है, | उघाड़ना जरूरी है। वह बहुत दूर की खबर लाता है।
हम सभी जानते हैं कि पुर कहते हैं नगर को, बस्ती को। जिन्होंने कृष्ण को भी वैसी ही कठिनाई है। और जब भी किसी व्यक्ति | पुरुष शब्द का उपयोग किया है, उन्होंने कहा है कि यह आदमी तो के भीतर से परमात्मा ने स्वयं को अभिव्यक्त किया है, तब सदा ही | एक नगर है, एक पुर है। और इसके भीतर एक मालिक बस रहा ऐसी ही कठिनाई हुई है। कृष्ण की पीड़ा हम समझ सकते हैं। वे जो | है, वह पुरुष है। इस नगरी के भीतर जो छिपा है, वह। उदाहरण ले रहे हैं, वे जिन बातों के सहारे समझाने चल रहे हैं, वे | - तो पुरुष से अर्थ, स्त्री के विपरीत जो है, वैसा नहीं है। पुरुष का बातें बहुत साधारण हैं। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय नहीं, | | अर्थ मेल नहीं है। पुरुष तो स्त्री के भीतर भी है। स्त्री और पुरुष, कोई विकल्प नहीं। आदमी से बात करनी हो, तो आदमी की भाषा जैसा हम प्रयोग करते हैं, ये तो नगर की खबर देते हैं। स्त्री की बस्ती में ही बात करनी पड़ेगी।
अलग है, उसका शरीर अलग है। और जिसे हम पुरुष कहते हैं, इशारे करते हैं। इशारों से ज्यादा नहीं है यह बात। और जो उसकी भी बस्ती अलग है और शरीर अलग है। लेकिन भीतर जो आदमी इशारे को पकड़ लेगा, वह भटक जाएगा। और हम सबकी | बस रहा है पुरुष, उस नगर के बीच में जो बस रहा है मालिक, वह आदत इशारों को पकड़ने की है। हम मील के पत्थरों को छाती से | एक है। लगाकर बैठ जाते हैं, यह सोचकर कि यह मंजिल हुई। हालांकि हर | इसलिए कई को यह खयाल हो सकता है कि कृष्ण ने स्त्रियों की मील का पत्थर, केवल एक तीर का इशारा है आगे की तरफ, कि | जरा भी बात न कही। कुछ तो कहना था कि स्त्रियों में मैं कौन! मंजिल आगे है।
ज्यादती मालूम पड़ती है। सबकी बात कर रहे हैं, और स्त्री कोई और मैं चांद को अंगुली से बताऊं, तो बहुत डर है कि अंगुली | | छोटी घटना नहीं है कि उसकी बात छोड़ी जा सके। जिसे हम पुरुष पकड़ ली जाए और चांद समझ ली जाए। यद्यपि अंगुली चांद नहीं कहते हैं, उससे तो थोड़ी बड़ी ही घटना है। क्योंकि जीवन के इस
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