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कोई नदी से गुजरे और पानी न छुए। ऐसे गुजर जाता है, जैसे कमल के पत्ते हों पानी पर खिले; ठीक पानी पर खिले, और पानी उनका स्पर्श न करता हो। लेकिन आयोजन नहीं है।
ध्यान रहे, किसी भी चीज का आयोजन करके मन को राजी किया जा सकता है – किसी भी चीज का आयोजन करके । दुख का आयोजन करके भी दुख में सुख लिया जा सकता है।
वैज्ञानिक जानते हैं, मनोवैज्ञानिक जानते हैं उन लोगों को, जिनका नाम मैसोचिस्ट है। दुनिया में एक बहुत बड़ा वर्ग है ऐसे लोगों का, जो अपने को सताने में मजा लेते हैं। दूसरे को सताने में सभी मजा लेते हैं; करीब-करीब सभी। कुछ लोग हैं, जो अपने को सताने में भी मजा लेते हैं।
आप कहेंगे, ऐसा तो आदमी नहीं होगा, जो अपने को सताने में मजा लेता हो! मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी बढ़ी प्रगाढ़ मात्रा में है, जो अपने को सताने में मजा लेता है। अगर उसको खुद को सताने का मौका न मिले, तो वह मौका खोजता है। वह ऐसी तरकीबें ईजाद करता है कि दुख आ जाए। जहां वह छाया में बैठ सकता था, वहां धूप में बैठता है। जहां उसे खाना मिल सकता है, वहां भूखा रह जाता है। जहां सो सकता था, वहां जगता है। जहां सपाट रास्ता था, वहां न चलकर कांटे-कबाड़ में चलता है! क्यों?
क्योंकि खुद को दुख देने से भी अहंकार की बड़ी तृप्ति होती है। खुद को दुख देकर भी पता चलता है कि मैं कुछ हूं। तुम कुछ भी नहीं हो मेरे सामने ! मैं दुख झेल सकता हूं।
यह जो स्वयं को दुख देने की वृत्ति है, यह दूसरे को दुख देने की वृत्ति का ही उलटा रूप है। चाहे दूसरे को दुख दें, चाहे अपने को दुख दें, असली रस दुख देने में है ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, तपस्वी से योगी बहुत ऊपर है। क्योंकि तपस्वी स्वयं को दुख देने की प्रक्रिया में लगा रहता है। मनोविज्ञान की भाषा में वह मैसोचिस्ट है।
मैसोच नाम का एक लेखक हुआ, जो अपने को ही कोड़े न मार ले, तब तक उसको नींद न आती थी। बिस्तर में कांटे न डाल ले, तब तक उसको नींद न आए। भोजन में जब तक थोड़ी-सी नीम न मिला ले, तब तक उससे भोजन न किया जाए। अगर हमारे मुल्क में मैसोच पैदा हुआ होता, तो हम कहते, बड़ा महात्मा है !
गांधीजी को भी नीम की चटनी भोजन के साथ खाने की आदत थी। जो भी लोग देखते थे, कहते थे, बड़ी ऊंची बात है! स्वभावतः । लुई फिशर गांधीजी को मिलने आया, तो उन्होंने लुई फिशर की भी
थाली में एक बड़ी मोटी पिंडी नीम की चटनी की रखवा दी। जो भी मेहमान आता था, उसको खिलाते थे, क्योंकि खुद खाते थे। जो आदमी अपने को दुख देना सीख जाता है, वह दूसरे को भी दुख | देने की चेष्टाएं करता है।
लुई फिशर ने देखा कि क्या है ! और गांधीजी इतने रस से खा रहे हैं! तो उसने भी चखकर देखा, तो सब मुंह जहर हो गया। उसने | सोचा कि बड़ा मुश्किल हो गया। उसके साथ रोटी लगाकर खानी, मतलब रोटी भी खराब हो जाए; सब्जी मिलाकर खाओ, सब्जी भी खराब हो जाए ! पर उसने सोचा कि न खाएंगे, तो गांधीजी क्या सोचेंगे, कि मैंने इतने प्रेम से चटनी दी और न खाई। भला आदमी। उसने सोचा, इसको इकट्ठा ही गटक जाना बेहतर है सब भोजन खराब करने की बजाय । और अशुभ भी मालूम न पड़े, अशिष्टाचार भी मालूम न पड़े, इसलिए इसे एकदम एक दफा में | गटक लेना अच्छा है। फिर पूरा भोजन तो खराब न हो। तो वह पूरी | की पूरी चटनी गटक गया। गांधीजी ने रसोइए को कहां कि देखो, चटनी कितनी पसंद आई ! और ले आओ !
लुई फिशर पर जो गुजरी होगी, वह हम समझ सकते हैं। गांधीजी के आश्रम में एक सज्जन थे, अभी भी हैं, प्रोफेसर भंसाली। अभी उनका जन्मदिन मनाया गया। महा संत की तरह, गांधीजी के मानने वाले, भंसाली को मानते हैं। पक्के तपस्वी हैं। छः महीने तक गाय का गोबर खाकर ही रहे। तपस्वी पक्के हैं, इसमें | कोई शक - शुबहा नहीं ! लेकिन मैसोचिस्ट हैं। इलाज होना चाहिए दिमाग का । पागलखाने में कहीं न कहीं इलाज होना चाहिए। गाय का गोबर खाना! ऐसे तो मौज है आदमी की जो उसे खाना हो, खाए। लेकिन यह तपश्चर्या बन जाती है। आस-पास के लोग कहते हैं, क्या महान तपस्वी गाय का गोबर खाकर जीता है ! हम तो नहीं जी सकते। नहीं जी सकते, तो फिर हम कुछ भी नहीं हैं; यह बहुत महान है। यह मैसोचिज्म है।
आज मनोविज्ञान जिसको पहचानता है कि खुद को सताने की वृत्ति बीमार है, रुग्ण है। यह स्वस्थ चित्त का लक्षण नहीं है। कृष्ण हजारों साल पहले पहचानते थे । वे अर्जुन से, जो आज का मनोविज्ञान कह रहा है, वह कह रहे हैं कि तपस्वी से ऊंचा है योगी ।
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क्यों? क्योंकि तपस्वी तो सिर्फ, जिसको हम कहें, ऊपरी तरकीबों और ऊपरी व्यर्थ की बातों में, और अपने को कष्ट देकर रस लेता है। और चूंकि कोई आदमी खुद को कष्ट देकर रस लेता है, बाकी लोग भी उसको आदर देते हैं। क्यों आदर देते हैं? अगर