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गीता दर्शन भाग-3
यह रुकती नहीं है।
कार का कोई भी कसूर नहीं है। कोई भी कसूर नहीं है। और मजा यह है कि जब आप चिल्ला रहे हैं, तब भी आपका पैर एक्सेलरेटर को दबाए चला जा रहा है तब भी ! ठीक हम मन के साथ ऐसा ही कर रहे हैं । और इसलिए मन को दोष देते हैं जीवनभर, लेकिन हल नहीं होता कुछ।
दूर खड़े रहेंगे, तो मन नहीं दौड़ेगा। ऐसे ही होगा कि कार स्टार्ट कर | दी और एक्सेलरेटर नहीं दबाया। भड़भड़, भड़भड़ होगी, लेकिन गाड़ी चलेगी नहीं; और थोड़ी देर में इंजन बंद पड़ जाएगा। अगर कामवासना के साथ दौड़ाना है, तो ऐसा मत सोचें कि मैं कामवासना का विचार करता हूं; ऐसा सोचेंगे, तो एक्सेलरेटर पर | पैर नहीं पड़ेगा। ऐसा सोचें कि मैं कामवासना हूं। बस, मन दौड़ना शुरू कर देगा। थोड़ी देर में कामवासना आपकी पूरी आत्मा को घेर लेगी। आप उसके साथ एक हो जाएंगे। और जितना एक हो जाएंगे, उतनी मन की गति तेज हो जाएगी।
कृष्ण कहते हैं, मन चंचल है। स्वभाव है मन का चंचल होना । होना ही चाहिए मन चंचल, नहीं तो मन का कोई अर्थ नहीं है। मन का प्रयोजन ही वही है। लेकिन मन के यंत्र में मन को रोकने की भी व्यवस्था है। उस व्यवस्था को, उस ब्रेक सिस्टम को ठीक से समझ लेना चाहिए कि वह क्या व्यवस्था है, जो मन को रोकती भी है।
दो बातों का ध्यान रखना जरूरी है, एक तो जब मन को रोकना हो, तो एक्सेलरेटर पर पैर न रहे। इसलिए कार में एक ही पैर से दो काम लेते हैं हम, ताकि भूल न हो जाए। नहीं तो एक पैर से ब्रेक लगा सकते हैं, एक से एक्सेलरेटर चला सकते हैं। लेकिन एक ही पैर से दोनों काम लेते हैं, ताकि कभी भूल न हो जाए। जब ब्रेक दबाएं, तो एक्सेलरेटर न दब जाए साथ में। अगर दोनों पैर से काम लें, तो खतरे का पूरा डर है। एक पैर से एक्सेलरेटर दबा दें और एक से ब्रेक दबा दें, तो उपद्रव हो ही जाने वाला है। इसलिए एक ही पैर से दो काम लेते हैं। उसी पैर को ब्रेक पर रखते हैं, ताकि एक्सेलरेटर अनिवार्यतः छूट जाए।
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मन में भी वैसी ही व्यवस्था है। ठीक वैसी ही व्यवस्था है। जिस ढंग से हम दबाते हैं मन को काम लेने के लिए, उसी ढंग से मन की रुकावट के लिए भी उसी व्यवस्था का उपयोग करना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान हटना पड़ता है। थोड़ा-सा स्थान भर पैर को हटाना पड़ता है। उसे समझ लें कि वह व्यवस्था क्या है।
टेक्निकल, तकनीकी शब्द है, वह है, राग राग का मतलब रंग ही होता है। राग का मतलब रंग ही होता है। किसी भी वृत्ति के राग में पड़ जाएं, अर्थात वृत्ति में ऐसे रंग जाएं कि रंग आपके ऊपर पूरा फैल जाए, तो मन की गति तीव्र हो जाती है।
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जब आपको मन को दौड़ना होता है, तो क्या व्यवस्था है? एक्सेलरेटर क्या है मन का ? उसको गत्यात्मक करने का क्या ढांचा है ? हम सब दौड़ाते हैं; इसलिए दौड़ाने से ही शुरू करना ठीक होगा। जब आपको मन को दौड़ाना होता है, तब आप क्या करते हैं?
अनेक हत्यारे अदालतों में कहते हैं कि हत्या हमने नहीं की। वे ठीक ही कहते हैं। पहले तो लोग सोचते थे कि हत्यारे सिर्फ इसलिए कहते हैं कि हमने हत्या नहीं की, क्योंकि वे अदालत को धोखा देना चाहते हैं। लेकिन अब मनसविद कहते हैं कि बहुत अर्थों में वे ठीक ही कहते हैं, धोखा देने के लिए नहीं कहते।
शायद आपने खयाल न किया हो, जब मन को दौड़ाना हो, तो मन के साथ तादात्म्य स्थापित करना पड़ता है। जितना तादात्म्य स्थापित हो जाए, मन उतना ही दौड़ता है। तादात्म्य एक्सेलरेटर है। तादात्म्य का मतलब है कि मन की जिस वृत्ति दौड़ाना हो, उसके साथ एकात्म हो जाना पड़ता है।
अगर आपको कामवासना के साथ मन को दौड़ाना है, तो आप
ब्रेक की व्यवस्था ठीक उलटी है; तादात्म्य तोड़ना पड़ेगा। | जितना मन की किसी भी वृत्ति से दूर हो जाएंगे, पार हो जाएंगे, अलग हो जाएंगे, अनुभव कर पाएंगे, मैं भिन्न हूं, उतना ही ब्रेक
लग जाएगा।
एक ही पैर का उपयोग करना है - तादात्म्य । अगर दबाया तादात्म्य को, एक हुए, तो गति पकड़ेगा; मन और चंचल हो | जाएगा। अगर दूर हटाया तादात्म्य को, मन अचंचल हो जाएगा। और आपके सहयोग के बिना न तो चंचल हो सकता है, न आपके असहयोग के बिना अचंचल हो सकता है। टु कोआपरेट एंड नाट टु कोआपरेट ।
सहयोग गति देता है, असहयोग गति तोड़ देता है।
तो जिस वृत्ति को चलाना हो, उसके साथ सहयोग कर लें; इतना सहयोग कर लें कि आप उसी वृत्ति के रंग में रंग जाएं। इसका जो
असल में हत्यारा जब हत्या करता है, तो हत्यारा मौजूद ही नहीं रहता; हत्या के साथ इतना रंग जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। | सोचने वाला, विवेक का जरा-सा भी बिंदु बाहर नहीं रह जाता, जो कहे कि मैंने हत्या की। हत्या हुई । मैं इतना भी अलग नहीं बचता कि वह कह सके, मैंने हत्या की। हत्यारा इतना ही कह सकता है
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