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मन साधन बन जाए
कि हत्या के भाव ने मुझे इस बुरी तरह पकड़ लिया कि मैं तो था ही नहीं । हत्या मुझसे हुई है, मैंने की नहीं है। और मनसविद कहते हैं कि वह ठीक ही कह रहा है।
सच तो यह है कि बहुत-से हत्यारे हत्या करने के बाद भूल ही जाते हैं कि उन्होंने हत्या की। भूल ही जाते हैं! और बहुत जांच-पड़ताल करके पता चला है कि उनके भीतर कोई भी स्मृति नहीं रह जाती कि उन्होंने हत्या है। क्यों नहीं रह जाती ?
स्मृति बनने के लिए भी थोड़ा-सा फासला चाहिए; थोड़ा-सा फासला, अन्यथा स्मृति नहीं बनेगी। अगर आप वृत्ति के साथ पूरे रंग गए, तो घटना हो जाएगी, लेकिन स्मृति नहीं बनेगी। स्मृति बनेगी किसको? मैं तो बचता ही नहीं, जो नोट कर ले कि हत्या की जा रही है। मैं इतना डूब जाता हूं, इतना बेहोश हो जाता हूं, इतना एक हो जाता हूं कि मेरे द्वारा हत्या हो जाती है, लेकिन मेरे द्वारा उसकी कोई स्मृति नहीं बन पाती । मेरा कांशस माइंड इतना लीन हो जाता है कि वह कोई स्मृति नहीं बनाता। अनकांशस मेमोरी बनती है।
इसलिए हत्यारा कहता है होश में कि मैंने हत्या नहीं की। लेकिन उसे हिप्नोटाइज करके बेहोश करते हैं, वह कह देता है, मैंने हत्या की। शराब पिला देते हैं, उसे बेहोश कर देते हैं, तो वह कह देता है, मैंने हत्या की । होश में रहता है, तो कहता है, मैंने हत्या नहीं की। होश वाले मन को कोई खबर ही नहीं है। खबर के लिए | दूरी चाहिए। वह दूरी मौजूद नहीं है।
आपने हत्या तो नहीं की है, सोचा बहुत बार होगा। क्योंकि ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसने किसी न किसी की हत्या करने
कभी न कभी सोचा हो। अगर किसी और की नहीं, तो अपनी करने का सोचा होगा। फर्क नहीं है। किसी न किसी की— उसमें स्वयं भी सम्मिलित हैं - हत्या करने का न सोचा हो, ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है, रेयर ।
जो जानते हैं, वे कहते हैं कि प्रत्येक आदमी सत्तर साल की उम्र में औसतन दस बार अपनी या किसी की हत्या करने का विचार करता है। कम से कम, यह मिनिमम है। करता नहीं है, यह दूसरी बात है। लेकिन विचार करता है। क्यों नहीं कर पाता ? कारण वही है। एक्सेलरेटर पूरा नहीं दब पाता, नहीं तो हो जाए। थोड़ा फासला बना रहता है। थोड़ा सोच-विचार भीतर कायम रहता है कि यह मैं क्या सोच रहा हूं! यह मैं क्या सोच रहा हूं! या भय के कारण एक्सेलरेटर पूरा नहीं दबा पाता कि कहीं स्पीड बहुत तेज न हो जाए, कोई एक्सिडेंट न हो जाए; तो धीरे चलाता है।
फासला रह जाए, तो वृत्ति नहीं कार्य कर पाती; फासला छूट जाए, तो वृत्ति कार्य कर जाती है । वृत्ति के साथ तादात्म्य मन को गति, मन को प्राण देना है, खून देना है। और वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ लेना मन को रुकावट डालनी है, ठहराना है।
इसको प्रयोग करके देखें, तो खयाल में आ जाएगा। जिस वृत्ति के साथ मन दौड़ रहा हो, यह मत कहें कि रुक जाओ। रुक जाओ | कहने का कोई मतलब नहीं है । उस वृत्ति के साथ तादात्म्य तोड़ें। मन में क्रोध आ रहा है, तब ऐसा न समझें कि मैं क्रोध कर रहा हूं। ऐसा ही समझें कि मन में क्रोध आ रहा है, मैं दूर खड़े होकर देख रहा हूं, जस्ट ए विटनेस, एक साक्षी । मैं देख रहा हूं कि मन कह रहा है कि क्रोध करो; मन कह रहा है कि गर्दन दबा दो; मन कह रहा है कि आग लगा दो - मैं देख रहा हूं।
और जैसे ही देखने का खयाल आएगा, आप अचानक पाएंगे कि एक्सेलरेटर से पैर हट गया, मन की गति धीमी हो गई । और यह अनुभव इतना सहज और सरल है कि प्रत्येक को ही होगा, इसमें कोई अड़चन नहीं है। सिर्फ खड़े होकर देखने की प्रक्रिया का अभ्यास जरूरी है।
और कर सकते हैं अभ्यास । रोज मौके मिलते हैं। रात विचार | चल रहे हैं मन में, यह मत कहें, करवट न बदलें परेशानी से कि मन बंद हो जाए, तो मैं सो जाऊं । न; जब विचार चल रहे हैं मन में, तो देखना शुरू करें। यह मत कहें कि बंद हो जाएं। विचारों को देखें कि विचार चल रहे हैं, मैं दूर खड़ा देख रहा हूं। मैं एक साक्षी हूं। मैं सिर्फ देखूंगा; तुम चलो।
और आप पाएंगे, जैसे ही आपने निर्णय लिया कि मैं देखूंगा, तुम चलो, उनकी चलने की ताकत कम होने लगी, उनके पैर शिथिल होने लगे, उनकी गति नीचे गिरने लगी। और जिस क्षण आप पूरे देखने वाले की तरह खड़े हो जाएंगे, मन एकदम शांत हो जाएगा। इधर आया साक्षी, उधर गया मन । इस द्वार से साक्षी ने प्रवेश किया, उस द्वार से मन विदा हुआ। यह एक साथ, युगपत घटना घटती है।
मन से लड़ने की जरूरत नहीं है। लड़ने वाला तो पागल है। मन के प्रति जागने की जरूरत है। जागने से निरोध फलित होता है।
और जब तक मन का निरोध न हो जाए, तब तक प्रभु की तरफ | यात्रा नहीं होती। क्योंकि मन संसार के लिए साधन, प्रभु के लिए बाधा । मन संसार के लिए सहयोगी, प्रभु के लिए विरोधी । इसमें कोई कसूर नहीं है। यह मैकेनिज्म की बात है सिर्फ । यह
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