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गीता दर्शन भाग - 3 >
यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम् । ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।। २६ ।। परंतु जिसका मन वश में नहीं हुआ हो, उसको चाहिए कि यह स्थिर न रहने वाला और चंचल मन जिस-जिस कारण से सांसारिक पदार्थों में विचरता है, उसे उससे रोककर
बारंबार परमात्मा में ही निरोध करे ।
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न चंचल है। वही उसकी उपयोगिता भी है, वही उसका खतरा भी। मन चंचल होगा ही, क्योंकि मन का प्रयोजन ही ऐसा है कि उसे चंचल होना पड़े। मन की चंचलता ठीक वैसी है, जैसे कि हवा का रुख देखने के लिए कोई घर के ऊपर पक्षी का पंख लगा दे। अगर पंख चंचल न हो, तो हवा का रुख न बता पाए। हवा जिस तरफ बहे, पंख को उसी तरफ घूम जाना चाहिए, तो ही वह खबर दे पाएगा कि हवा का रुख क्या है।
मन, मनुष्य के व्यक्तित्व में चारों तरफ जो अंतर हो रहे हैं, उनकी खबर देने का यंत्र है । इसलिए वह चंचल होगा ही । चंचल होगा, तो ही अर्थपूर्ण है, अन्यथा उसका कोई अर्थ नहीं है। आपके बाहर सर्दी बदलकर गर्मी हो गई है। मन अगर खबर न दे, तो जीवन असंभव है। रास्ते पर कांटा पड़ा है, मन अगर खबर न दे; पैर में चोट लग गई है, मन अगर खबर न दे; मित्र शत्रु हो गया है, मन अगर खबर न दे; भूख लगी है, मन अगर खबर न दे - तो जीवन असंभव है।
तो मन को तो प्रतिपल खबर देनी पड़ेगी, हजार तरह की । और वह हजार तरह की खबर तभी दे सकता है, जब प्रत्येक छोटी-सी घटना से चंचल हो, विचलित हो – तभी खबर दे पाएगा।
तो मन का प्रयोजन ही यही है कि वह आपके जीवन को अस्तित्व में रखने का यंत्र है। और अस्तित्व प्रतिपल बदल रहा है। एक क्षण भी वही नहीं है, जो एक क्षण पहले था। सब कुछ बदलता जा रहा है। हर घड़ी, हर क्षण, चारों तरफ प्रवाह है परिवर्तन का ।
इस परिवर्तन की आपको खबर होनी चाहिए, अन्यथा आप जी न सकेंगे। और इस परिवर्तन की जो खबर देगा, उसको हवा का रुख बताने वाले पंख की तरह कंपते रहना पड़ेगा, तैयार रहना पड़ेगा कि हवा कब बदल जाए, पंख उसके साथ ही बदल जाए। क्षणभर की देरी, कि जीवन खतरे में पड़ सकता है।
तो मन की उपादेयता, यूटिलिटी ही यही है। मन है ही इसलिए कि वह जीवन में हो रहे परिवर्तन की सूचना आपको प्रतिपल देता रहे। यह उसका प्रयोजन है। लेकिन यहीं उसका खतरा भी शुरू होता है। क्योंकि हम इसी मन से परमात्मा को भी जानना चाहते हैं, जिस मन से संसार जाना जाता है। तब भूल हो जाती है। क्योंकि संसार है प्रतिपल परिवर्तन, और परमात्मा है सनातन, शाश्वत । वह कभी बदलता नहीं। वह सदा वही है, जो है । और संसार कभी वही नहीं है, जो क्षणभर पहले था। संसार तो बहती हुई गंगा है, जहां एक क्षण भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है। फ्लक्स है, प्रवाह है। और परमात्मा सदा वही है, जहां कभी कुछ कणभर भी नहीं बदला है।
तो मन संसार को जानने में तो बिलकुल ही समर्थ और सहयोगी है, परमात्मा को जानने में बिलकुल व्यर्थ और बाधा है। अगर इसी मन से परमात्मा को जानना चाहा, तो आप कभी न जान पाएंगे। कभी कोई उपाय इससे परमात्मा को जानने का नहीं है।
इस बात को ठीक से समझ लें। मन के दुश्मन हो जाने की कोई जरूरत नहीं है, सिर्फ मन का प्रयोजन समझ लेने की जरूरत है।
मन का प्रयोजन ही जो चंचल है उसको जानना है, इसलिए मन चंचल है। मन का प्रयोजन ही नहीं है उसको जानना, जो शाश्वत है, नित्य है । इसलिए शाश्वत और नित्य की तरफ मन का उपयोग करना पागलपन है। गलत, असंगत आयाम है परमात्मा मन लिए। या परमात्मा के लिए मन असंगत विधि है।
इसलिए जो भी परमात्मा की तरफ, सत्य की तरफ, नित्य की तरफ, अपरिवर्तनीय की तरफ, शाश्वत की तरफ, इटरनल की | तरफ यात्रा करना चाहता है, उसे मन की चंचलता को छोड़कर, मन को ठहराकर ही गति करनी पड़ेगी।
इसका यह भी मतलब नहीं है कि आप बिलकुल जड़ हो जाएं। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मन आपका पत्थर हो जाए । |इसका इतना ही मतलब है कि मन को आन और आफ करने की कला आपके पास होनी चाहिए। जब आप चाहें, तो मन की गति | शून्य की जा सके; और जब आप चाहें, तो मन की गति पूरी की जा सके। इसकी गुलामी न रह जाए, इसकी परवशता न रह जाए; इसके आप मालिक हो जाएं कि आप बटन दबाएं और मन काम बंद कर दे, ताकि आप शाश्वत को जान सकें। आप बटन दबाएं और मन सक्रिय हो जाए, ताकि आप संसार में जी सकें।
और अस्तित्व दोहरा है। बाहर की तरफ संसार है, भीतर की | तरफ परमात्मा है। इसलिए अक्सर एक भूल हो जाने का डर है कि
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