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________________ गीता दर्शन भाग-3 मुझ तक न आ पाएगा, क्योंकि मैं छिपा हूं। और जो तुझे दिखाई पड़ेगा, वह मैं नहीं हूं; जो नहीं दिखाई पड़ेगा, वह मैं हूं। , तू मुझे देख ले, अदृश्य को; जब तू अदृश्य को देख लेगा, तो दृश्य में देख लेना तो बहुत सरल है। जब कोई आदमी ध्वनिरहित ध्वनि को सुन ले, तो फिर ध्वनि को सुनना कठिन नहीं है । और जब कोई शब्दरहित शब्द को जान ले, तो फिर शब्दों को पहचानना कठिन नहीं है । और जब कोई विराट को देख ले, तो क्षुद्र को देखने में क्या अड़चन है ! इसलिए कृष्ण का तर्क, या कृष्ण की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है। समस्त धर्म की पद्धति पूर्ण से शुरू करने की है । समस्त विज्ञान की पद्धति खंड से, टुकड़े से शुरू करने की है, फ्राम दि पार्ट | और धर्म की पद्धति, फ्राम दि होल। वही विज्ञान और धर्म की पद्धतियों का बुनियादी भेद है। विज्ञान शुरू करता है एटम से, अणु से । और अणु से छोटी चीज मिले, तो उससे । और भी छोटी चीज मिल जाए, तो उससे । जितनी क्षुद्र मिल जाए, विज्ञान उससे शुरू करेगा। क्योंकि जितनी क्षुद्र हो, आदमी अपने हाथ में उसे उतनी ही आसानी से ले सकता है । जितनी क्षुद्र हो, उतना ठीक से विश्लेषण हो सकता है। जितनी क्षुद्र हो, प्रयोगशाला में प्रयोग हो सकता है । जितनी क्षुद्र हो, आदमी उसका मालिक हो सकता है। और धर्म शुरू करता है विराट से । निश्चित ही फर्क पड़ेगा। विराट को आप अपने हाथ में नहीं ले सकते। अगर विराट को जानना है, तो आपको स्वयं ही विराट के हाथों में गिर जाना होगा। क्षुद्र को आप अपने हाथ में ले सकते हैं। प्रयोगशाला की परखनली में जांच सकते हैं। काट-पीट कर सकते हैं। क्षुद्र के आप मालिक हो सकते हैं। लेकिन विराट के मालिक आप नहीं हो सकते हैं। विराट को ही आपको अपना मालिक बना लेना होगा । इसलिए पूर्ण से जब धर्म शुरू होता है, तो समर्पण उसकी विधि हो जाती है। और चूंकि विज्ञान क्षुद्र से शुरू होता है, इसलिए संघर्ष उसकी विधि होती है। इसलिए विज्ञान सोचता है इन टर्म्स आफ कांकरिंग, जीतने की भाषा में। और धर्म सोचता है हारने की भाषा में, आदमी कैसे हार जाए परमात्मा के चरणों में। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मैं तो छिपा हूं इस सब क्षुद्र में भी, लेकिन तू मुझसे शुरू कर । त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ।। १३ । । गुणों के कार्यरूप सात्विक, राजस और तामस, इन तीनों प्रकार के भावों से यह सब संसार मोहित हो रहा है, इसलिए इन तीनों गुणों से परे मुझ अविनाशी को तत्व से नहीं जानता । के में सारे ही प्र होगे मोह के, अलग-अलग बहाने होंगे । बस, बहाने ही अलग-अलग होते हैं, मोह का परिणाम एक ही | होता है। बड़ा क्रांतिकारी सूत्र है! सत्व, रज, तम, तीनों से ही जो मोहित हैं, वे मेरे तत्व को न जान पाएंगे, क्योंकि मैं बियांड हूं, मैं पार हूं तीनों के। इसको समझना पड़ेगा। क्योंकि हमें लगता है, चोर नहीं जान पाएगा, बेईमान नहीं जान पाएगा; लेकिन हमें लगता है, सज्जन तो जान लेगा! सज्जन तो सत्व से मोहित है। हम कहते हैं, वह आदमी नहीं जान पाएगा, जो सिर्फ धन कमा रहा है। वह आदमी तो जान | लेगा, जो जाकर मरीजों की सेवा कर रहा है ! हम कहते हैं, वह आदमी भला न जान पाए, जो आदमी सिर्फ राजनीति की सीढ़ियां | चढ़ रहा है। लेकिन वह आदमी तो जान लेगा, जो दीन-दुखियों के पैर दाब रहा है। कृष्ण कहते हैं, सत्व, रज, तम, तीनों ही वह जो बुरा दिखाई | पड़ता है, वह तो मोहित है ही । वह जो भला दिखाई पड़ता है, वह भी मेरी ही प्रकृति के सत्व गुण से हिप्नोटाइज्ड है, वह भी मोहित है। यह बड़े मजे का है, और कठिन है थोड़ा; और थोड़ा जटिल है जानना | 384 समझिए कि आप अपनी दुकान पर हैं, और आज अगर ग्राहक न आए, तो आप दुखी होते हैं। लेकिन आपको पता है कि किसी सेवक को अगर कोई सेवा करवाने वाला न मिले, तो आपसे कम दुख नहीं होता। इतना ही दुख हो जाता है। फर्क क्या हुआ ? माना कि वह काम अच्छा कर रहा था, लेकिन परिणाम तो एक ही है। अगर समाज इतना सुखद हो जाए, इतना मंगल को उपलब्ध हो जाए कि किसी व्यक्ति को समाज में समाज-सुधार के काम करने
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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