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________________ मालकियत की घोषणा > बीजों से निकलते हैं। इसलिए आखिर में जब नीम के कड़वे फल हाथ में आते हैं, शायद आप दुखी होते हैं और पछताते हैं । सोचते हैं, मैंने तो बीज बोए थे अमृत के, फल कड़वे कैसे आए? ध्यान रहे, फल ही कसौटी है, परीक्षा है बीज की । फल ही बताता है कि बीज आपने कैसे बोए थे। आपने कल्पना क्या की थी, उससे बीजों को कोई प्रयोजन नहीं है। हम सभी आनंद लाना चाहते हैं जीवन में, लेकिन आता कहां है आनंद! हम सभी शांति चाहते हैं जीवन में, लेकिन मिलती कहां है शांति ! हम सभी चाहते हैं कि सुख, महासुख बरसे, पर बरसता कभी नहीं है। तो इस संबंध में एक बात इस सूत्र से समझ लेनी जरूरी है कि हमारी चाह से नहीं आते फल; हम जो बोते हैं, उससे आते हैं। हम चाहते कुछ हैं, बोते कुछ हैं। हम बोते जहर हैं और चाहते अमृत हैं! फिर जब फल आते हैं, तो जहर के ही आते हैं, दुख और पीड़ा के ही आते हैं, नर्क ही फलित होता है। हम सब अपने जीवन को देखें, तो खयाल में आ सकता है। जीवनभर चलकर हम सिवाय दुख के गड्ढों के और कहीं भी नहीं पहुंचते मालूम पड़ते हैं। रोज दुख घना होता चला जाता है। रोज रात कटती नहीं, और बड़ी होती चली जाती है। रोज मन पर और संताप के कांटे फैलते चले जाते हैं। फूल आनंद के कहीं खिलते हुए मालूम नहीं पड़ते। पैरों में पत्थर बंध जाते हैं दुख के | पैर नृत्य नहीं कर पाते हैं उस खुशी में, जिस खुशी की हम तलाश में हैं। फिर कहीं न कहीं हम - हम ही — क्योंकि और कोई नहीं है; हम ही कुछ गलत बो लेते हैं । उस गलत बोने में ही हम अपने शत्रु सिद्ध होते हैं। बीज बोते वक्त खयाल रखना, क्या बो रहे हैं। बहुत हैरानी की बात है, एक आदमी क्रोध के बीज बोए, और शांति पाना चाहे! और एक आदमी घृणा के बीज बोए, और प्रेम की फसल काटना चाहे ! और एक आदमी चारों तरफ शत्रुता फैलाए, और चाहे कि सारे लोग उसके मित्र हो जाएं! और एक आदमी सब की तरफ गालियां फेंके, और चाहे कि शुभाशीष सारे आकाश से उसके ऊपर बरसने लगें ! पर आदमी ऐसी ही असंभव चाह करता है, दि इंपासिबल डिजायर ! मैं गाली दूं और दूसरा मुझे आदर दे जाए, ऐसी ही असंभव कामना हमारे मन में बैठी चलती है। मैं दूसरे को घृणा करूं और दूसरे मुझे प्रेम कर जाएं। मैं किसी पर भरोसा न करूं, और सब मुझ पर भरोसा कर लें। मैं सबको धोखा दूं, और मुझे कोई धोखा न दे। मैं 41 सबको दुख पहुंचाऊं, लेकिन मुझे कोई दुख न पहुंचाए। यह असंभव है । जो हम बोएंगे, वह हम पर लौटने लगेगा। और जीवन का सूत्र है कि जो हम फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। चारों ओर से हमारी ही फेंकी गई ध्वनियां प्रतिध्वनित | होकर हमें मिल जाती हैं। देर लगती है । जाती है ध्वनि; टकराती है बाहर की दिशाओं से वापस लौटती है। वक्त लग जाता है। जब तक लौटती है, तब तक हमें खयाल भी नहीं रह जाता कि हमने जो गाली फेंकी थी, वही वापस लौट रही है। बुद्ध का एक शिष्य मौग्गलायन एक रास्ते से गुजर रहा है। उसके साथ दस-पंद्रह संन्यासी और हैं। जोर से पैर में पत्थर लग जाता है रास्ते पर, खून बहने लगता है। मौग्गलायन आकाश की तरफ हाथ जोड़कर किसी आनंद-भाव में लीन हो जाता है। उसके चारों तरफ वे पंद्रह भिक्षु हैरानी में खड़े रह जाते हैं। मौग्गलायन जब अपने ध्यान से वापस लौटता है, तो वे उससे पूछते हैं, आप क्या कर रहे थे ? पैर में चोट लगी, पत्थर लगा, खून बहा, और आप कुछ ऐसे हाथ जोड़े थे, जैसे किसी को धन्यवाद दे | रहे हों ! मौग्गलायन ने कहा, बस, यह एक ही मेरा विष का बीज और बाकी रह गया था। मारा था किसी को पत्थर कभी, आज उससे छुटकारा हो गया। आज नमस्कार करके धन्यवाद दे दिया है प्रभु को कि अब मेरे कुछ भी बोए हुए बीज न बचे। यह आखिरी फसल समाप्त हो I लेकिन अगर आपको रास्ते पर चलते वक्त पत्थर पैर में लग जाए, तो इसकी बहुत कम संभावना है कि आप ऐसा सोचें कि किसी बोए हुए बीज का फल हो सकता है। ऐसा नहीं सोच पाएंगे। | संभावना यही है कि गली या रास्ते पर पड़े हुए पत्थर को भी आप एक गाली जरूर देंगे। पत्थर को भी और कभी खयाल भी न करेंगे कि पत्थर को दी गई गाली भी फिर बीज बो रहे हैं आप | पत्थर को दी गई गाली भी बीज बनेगी। सवाल यह नहीं है, किसको गाली दी । सवाल यह है कि आपने गाली दी । वह वापस लौटेगी। यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है कि किसको गाली दी । वह गाली वापस लौटेगी। सुना है मैंने कि जीसस के पास एक आदमी आया। गांव का साधारण ग्रामीण किसान है। बैलों को गाली देने में बहुत ही कुशल है अपनी बैलगाड़ी में जोतकर। जीसस निकलते हैं गांव के रास्ते से । वह आदमी अपने बैलों को बेहूदी गालियां दे रहा है। बड़े आंतरिक संबंध बना रहा है गालियों से। जीसस उसे रोकते हैं और कहते हैं कि पागल, तू यह क्या कर रहा है ! तो वह आदमी कहता है कि कोई
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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