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________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । और चाहे वही मनुष्य, ठीक वही मनुष्य, जो अंतिम नर्क को छूने आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।। ५।। में समर्थ है-चाहे तो मोक्ष के अंतिम सोपान तक भी यात्रा कर और यह योगारूढ़ता कल्याण में हेतु कही है। इसलिए सकता है। मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा आपका संसार समुद्र से । ये दोनों दिशाएं खली हैं। और इसीलिए मनुष्य अपना मित्र भी उद्धार करे और अपने आत्मा को अधोगति में न पहुंचावे।। हो सकता है और अपना शत्रु भी। हम में से बहुत कम लोग हैं जो क्योंकि यह जीवात्मा आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपने मित्र होते हैं, अधिक तो अपने शत्रु ही सिद्ध होते हैं। क्योंकि अपना शत्रु है अर्थात और कोई दूसरा शत्रु या मित्र नहीं है। हम जो भी करते हैं, उससे अपना ही आत्मघात होता है, और कुछ भी नहीं। किसे हम कहें कि अपना मित्र है? और किसे हम कहें कि अपना जो ग परम मंगल है। परम मंगल इस अर्थ में कि केवल | योग के ही माध्यम से जीवन के सत्य की और जीवन । एक छोटी-सी परिभाषा निर्मित की जा सकती है। हम ऐसा कुछ के आनंद की उपलब्धि है। परम मंगल इस अर्थ में भी भी करते हों, जिससे दुख फलित होता है, तो हम अपने मित्र नहीं कि योग की दिशा में गति करता व्यक्ति अपना मित्र बन जाता है। | कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति और योग के विपरीत दिशा में गति करने वाला व्यक्ति अपना ही | अपना शत्रु है। और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। शत्रु सिद्ध होता है। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुतं वक्त लग कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, उचित है, समझदारी है, बुद्धिमत्ता है| जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के इसी में कि व्यक्ति अपनी आत्मा का अधोगमन न करे, ऊर्ध्वगमन साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं। अक्सर फासला इतना करे। | हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के, न और ये दोनों बातें संभव हैं। इस बात को ठीक से समझ लेना मालूम कैसा दुर्भाग्य कि फल जहर के और विष के उपलब्ध हुए हैं। जरूरी है। लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ व्यक्ति की आत्मा स्वतंत्र है नीचे यात्रा करने के लिए भी, ऊपर भी न मिलता है, न मिलने का कोई उपाय है। यात्रा करने के लिए भी। स्वतंत्रता में सदा ही खतरा भी है। स्वतंत्रता ___ हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही का अर्थ ही होता है, अपने अहित की भी स्वतंत्रता। अगर कोई पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहंचते हैं, जहां की आपसे कहे कि आप सिर्फ वही करने में स्वतंत्र हैं. जो आपके हित हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते. जहां की हमने यात्रा में है; वह करने में आप स्वतंत्र नहीं हैं, जो आपके हित में नहीं ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने है तो आपकी स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं होगा। कोई अगर मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्तों को इससे कोई मुझसे कहे कि मैं स्वतंत्र हूं सिर्फ धर्म करने में और अधर्म करने के प्रयोजन नहीं है। लिए स्वतंत्र नहीं हूं, तो उस स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं होगा; वह मैं नदी की तरफ जा रहा हूं। मन में सोचता हूं कि नदी की तरफ परतंत्रता का ही एक रूप है। जा रहा हूं। लेकिन अगर बाजार की तरफ चलने वाले रास्ते पर मनुष्य की आत्मा स्वतंत्र है। और जब भी हम कहते हैं, कोई चलूंगा, तो मैं कितना ही सोचूं कि मैं नदी की तरफ जा रहा हूं, मैं स्वतंत्र है, तो दोनों दिशाओं की स्वतंत्रता उपलब्ध हो जाती पहुंचूंगा बाजार। सोचने से नहीं पहुंचता है आदमी; किन रास्तों पर है-बुरा करने की भी, भला करने की भी। दूसरे के साथ बुरा करने चलता है, उनसे पहुंचता है। मंजिलें मन में तय नहीं होतीं, रास्तों की स्वतंत्रता, अपने साथ बुरा करने की स्वतंत्रता बन जाती है। और से तय होती हैं। दूसरे के साथ भला करने की स्वतंत्रता, अपने साथ भला करने की आप कोई भी सपना देखते रहें। अगर आपने बीज नीम के बो स्वतंत्रता बन जाती है। दिए हैं, तो सपने आप शायद ले रहे हों कि कोई स्वादिष्ट मधुर फल मनुष्य चाहे तो अंतिम नर्क के दुख तक यात्रा कर सकता है; लगेंगे। आपके सपनों से फल नहीं निकलते। फल आपके बोए गए
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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