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4 गीता दर्शन भाग-3
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । लिए अदृश्य है। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।। २९ ।। । इसमें दूसरी और अदभुत बात कही है। उसके लिए मैं अदृश्य
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति । नहीं हूं, यह पहले समझ लें। फिर इससे भी अदभुत बात कृष्ण ने तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ।। ३०।। कही है, वह मेरे लिए अदृश्य नहीं है। क्योंकि हम, परमात्मा और हे अर्जुन, सर्वव्यापी अनंत चेतन में एकीभाव से स्थिति अदृश्य है, इस बात को तो अपने अंधेपन से समझा लेंगे। लेकिन रूप योग से युक्त हुए आत्मा वाला तथा सबमें समभाव से | परमात्मा के लिए हम अदृश्य हैं, इसे हम कैसे समझाएंगे! देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में बर्फ में जल के समस्त भूतों में देख पाए जो एक को...। । सदृश व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को आत्मा में आकार प्रत्येक वस्तु का अलग है। प्रत्येक व्यक्ति का आकार देखता है।
| अलग है। प्रत्येक वस्तु का गुण अलग है। प्रत्येक वस्तु भिन्न-भिन्न और जो पुरुष संपूर्ण भूतों में सबके आत्मरूप मुझ वासुदेव है। लेकिन भिन्नता के भीतर जो अभिन्नता देख पाए। यूनिटी इन को ही व्यापक देखता है और संपूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव डायवर्सिटी। वह जो इतना अनेक-अनेक होकर दिखाई पड रहा है. के अंतर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूं | वह कहीं गहरे में एक है-ऐसा जो देख पाए! सोच पाए नहीं। और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है। सोचना तो बहुत कठिन नहीं है।
सोच तो विज्ञान भी पाता है कि समस्त पदार्थों के बीच कोई एक
ही है। लेकिन सोचने से कुछ हल नहीं होता। सोच तो हम भी सकते 1 रमात्मा अदृश्य है, ऐसी हमारी मान्यता है। लेकिन यह हैं कि समस्त सोने के आभूषणों के बीच सोना ही है; और समस्त प मान्यता बड़ी भूल भरी है। परमात्मा अदृश्य नहीं है, | सागरों में एक ही जल है। सोचने का सवाल नहीं है। सोचने से
- हम ही अंधे हैं; खोजेंगे, तो ऐसा पाएंगे। अंधा अगर | | आंख नहीं खुलती। अंधा भी प्रकाश के संबंध में सोच-विचार कहे कि प्रकाश अदृश्य है, तो जो अर्थ होगा, वही अर्थ हमारे कहने | करता रह सकता है। इससे अनुभव उपलब्ध नहीं होता। का होता है कि परमात्मा अदृश्य है।
देख पाए! आदमी बहुत अदभुत है। स्वयं का अंधापन स्वीकार करना इसलिए दुनिया में समस्त भाषाओं में, चाहे वे किसी कोने में पीड़ादायी है; परमात्मा को ही अदृश्य मान लेना सुखद है। अंधे को | पैदा हुई हों, हम प्रभु-साक्षात करने वाले के लिए जो उपयोग करते भी आसान पड़ेगा यह मान लेना कि प्रकाश कुछ ऐसी चीज है जो हैं, उसमें आंख का उपयोग जरूर करते हैं। भारत में हम कहते हैं, दिखाई नहीं पड़ती; बजाय यह मानने के कि में अंधा हूं। अहंकार द्रष्टा। उसका अर्थ है, देखने वाला। विचारक नहीं, सोचने वाला को चोट लगती है कि मैं अंधा हूं। और फिर भी आंख के अंधेपन नहीं। तत्व अनुभव को हम कहते हैं, दर्शन; चिंतन नहीं, मनन नहीं, से इतनी चोट नहीं लगती, जितनी मेरी चेतना अंधी है, तो चोट आंख। पश्चिम में भी देखने वाले को सीअर ही कहते हैं, देखने लगती है।
वाला ही कहते हैं, जिसने देखा-सोचा-विचारा नहीं देखा, इसलिए आपसे कहता हूं, जो-जो लोग कहे चले जाते हैं कि अनुभव किया। परमात्मा अदृश्य है, परमात्मा अदृश्य है, वे सिर्फ अपने अंधेपन कैसे अनुभव होगा? समस्त रूपों में वह अरूप कैसे दिखाई को ढांके चले जाते हैं। आंख खुली हो, तो परमात्मा ही दृश्य है। पड़ेगा? या ऐसा समझें कि जो भी दृश्य है, वही परमात्मा है। न दिखाई। जब तक आप रूप देखेंगे, तब तक दिखाई नहीं पड़ेगा। थोड़ा पड़ना, अदृश्य होने का सबूत नहीं है अनिवार्य रूप से; अंधेपन का अरूप की तरफ साधना करनी पड़ेगी। लेकिन हम जो भी देखते हैं, सबूत भी हो सकता है।
सब रूपवान है। हम जो भी देखते हैं, साकार है। हम जहां भी जाते कृष्ण इस सूत्र में यही कहते हैं। वे कहते हैं कि जिसने अनुभव हैं, साकार से मुलाकात होती है। निराकार से मुलाकात नहीं होती। किया समस्त भूतों में एक को, और जिसने एक में अनुभव किया और मजा यह है कि सब जगह निराकार मौजूद है, लेकिन हमें समस्त भूतों को, उसके लिए न तो मैं अदृश्य हूं और न वह मेरे साकार से ही मुलाकात होती है। और सब जगह निर्गुण मौजूद है,
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