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________________ समालकियत की घोषणा हैं कि मैं अभागा हूं; दुख में मरा जा रहा हूं। अपने ही हाथ से कोड़े है; और स्वयं की जिसकी कोई आवाज नहीं है। कभी इंद्रियों की मारते हैं अपनी ही पीठ पर, लहूलुहान कर लेते हैं। और दूसरे हाथ मान लेता है, कभी शरीर की मान लेता है, कभी मन की मान लेता से लहू पोंछते हैं और कहते हैं कि मेरा भाग्य! अपने ही हाथ से है, लेकिन खुद की अपनी कोई भी समझ नहीं है। वह ठीक दुख निर्मित करते हैं और फिर चिल्लाते हैं, मेरी नियति! | स्वभावतः वैसी ही स्थिति में हो जाएगा. जैसे कोई रथ चलता हो। नहीं, कोई नियति नहीं है, आप ही हैं। और अगर कोई नियति | सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। सब घोड़े अपनी-अपनी है, तो वह आपके द्वारा ही काम करती है। और आप उस नियति दिशाओं में जाते हों, जिसे जहां जाना हो! घोड़ों को बांधने का, को मार्ग देने में परम स्वतंत्र हैं, क्योंकि आप परमात्मा के हिस्से हैं। | निकट लेने का, एक-सूत्र रखने का, एक दिशा पर चलाने की कोई आपकी स्वतंत्रता में रत्तीभर कमी नहीं है। आप इतने स्वतंत्र हैं। व्यवस्था न हो। सारथी सोया हो। लगामें टूटी पड़ी हों। घोड़े कि नर्क जा सकते हैं; आप इतने स्वतंत्र हैं कि स्वर्ग निर्मित कर | अपनी-अपनी जगह जाते हों। कोई बाएं चलता हो, कोई दाएं सकते हैं। आप इतने स्वतंत्र हैं कि आपके एक-एक पैर पर चलता हो। कोई चलता ही न हो। कोई दौड़ता हो, कोई बैठा हो। एक-एक स्वर्ग बस जाए। और आप इतने स्वतंत्र भी हैं कि आपके | | तो जैसी स्थिति उस रथ की हो जाए, और जैसी स्थिति उस रथ में एक-एक पैर पर एक-एक नर्क निर्मित हो जाए। और सब आप पर | बैठे हुए मालिक की हो जाए, वैसी स्थिति हमारी हो जाती है। निर्भर है। आपके अतिरिक्त कोई भी जिम्मेवार नहीं है। ___ कभी आपने खयाल न किया होगा कि आपकी इंद्रियां एक-दूसरे तो अपने मित्र हैं या शत्र, इसे थोड़ा सोचना, देखना। और के विपरीत मांग करती हैं, और आप दोनों की मान लेते हैं। आपका धीरे-धीरे आप पाएंगे कि शत्रु होना मुश्किल होने लगेगा, मित्र | शरीर और मन विपरीत मांग करते हैं, और आप दोनों की मान लेते होना आसान होने लगेगा। और तब इस सूत्र को पढ़ना। तब इस | हैं। शरीर कहता है, रुक जाओ, अब खाना मत डालो, क्योंकि पेट सूत्र के अर्थ, अभिप्राय प्रकट होते हैं। में तकलीफ शुरू हो गई। और मन कहता है, स्वाद बहुत अच्छा आ रहा है; थोड़ा डाले चले जाओ। आप दोनों की माने चले जाते | हैं। आप देखते नहीं कि आप क्या कर रहे हैं! एक कदम बाएं चलते बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः।। हैं, साथ ही एक कदम दाएं भी चल लेते हैं। एक कदम आगे जाते अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।। ६ ।। हैं, एक कदम पीछे भी आ जाते हैं! उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है, कि जिस जीवात्मा ___ एक ही साथ विपरीत काम किए चले जाते हैं, क्योंकि विपरीत द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, और जिसके | | इंद्रियों और विपरीत वासनाओं की साथ ही स्वीकृति दे देते हैं। एक द्वारा मन और इंद्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसका | हाथ बढ़ाते हैं किसी से दोस्ती का, दूसरे हाथ में छुरा दिखा देते वह आप ही शत्रु के सदृश, शत्रुता में बर्तता है। हैं-एक साथ! किसी को हाथ जोड़कर नमस्कार करते हैं, और भीतर से उसको गाली दिए चले जाते हैं कि इस दुष्ट की शकल सुबह-सुबह कहां दिखाई पड़ गई! और हाथ जोड़कर उससे ऊपर द्रियों और शरीर को जिसने जीता है, वह अपना मित्र कह रहे हैं कि बड़े शुभ दर्शन हुए। आज का दिन बड़ा शुभ है। र . हो पाता है। और जिसे अपनी इंद्रियों और अपने शरीर | और भीतर कहते हैं कि मरे; आज पता नहीं धंधे में नुकसान लगेगा, पर कोई भी वश, कोई भी काबू नहीं, वह अपना शत्रु | | कि पत्नी से कलह होगी, कि क्या होगा! यह सुबह-सुबह कहां से सिद्ध होता है। यह शकल दिखाई पड़ गई है! और इसके साथ हाथ भी जोड़ रहे मित्रता और शत्रुता को दूसरे आयाम से समझें। इस सूत्र में दूसरे | | हैं, नमस्कार भी कर रहे हैं; मन में यह भी चलता जाता है। आयाम से, दूसरी दिशा से मित्रता और शत्रुता के सूत्र को समझाने मन खंड-खंड है। एक-एक इंद्रिय अपने-अपने खंड को पकड़े की कोशिश है। हुए है। सभी इंद्रियों के खंड भीतर अखंड होकर एक नहीं हैं। कोई शरीर और इंद्रियां जिसके परतंत्र नहीं हैं; जिसकी इंद्रियां कुछ | | भीतर मालिक नहीं है। कहती हैं, जिसका शरीर कुछ कहता है; जिसका मन कुछ कहता गुरजिएफ कहा करता था, हम उस मकान की तरह हैं, जिसका
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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