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________________ < मुखौटों से मुक्ति - है, सिर्फ एक्वेनटेंस है। हमारा सब जानना, मात्र परिचय है- नहीं किया है। किन्हीं क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो ऊपरी, बाहरी। गए जिसे आपने प्रेम किया है। और अगर ऐसा न लगा हो. तो जैसे किसी के घर के बाहर से हम उसका घर घमकर देख आएं | आप प्रेम के नाम पर परिचय को ही जान रहे हैं। अभी प्रेम की और सोचें कि हमने उसके घर को जान लिया। और उसके भीतर नोइंग, प्रेम का ज्ञान अभी घटित नहीं हो पाया। हमारा कोई प्रवेश नहीं हुआ। जैसे हम सागर के किनारे खड़े होकर यह जो हमारी जानने की दुनिया है, वहां परिचय ही जानना सोचें कि हमने सागर को जान लिया। और सागर के भीतर हमारा समझा जाता है। कृष्ण तो उस बात को उठा रहे हैं, जहां होना ही कोई प्रवेश नहीं हुआ। यह जानना जानना नहीं है, यह एक्वेनटेंस ज्ञान है; टु बी इज़ टु नो। उसके अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं है। है, सिर्फ परिचय मात्र है–थोथा, ऊपरी, बाह्य। मैं एक कहानी निरंतर कहता रहा हूं। मैं कहता रहा हूं कि जापान ज्ञान हमारी जिंदगी में कोई है नहीं । और अगर आपकी जिंदगी का एक चित्रकार बांसों का एक झुरमुट बना रहा है, वंशीवट बना में कोई ज्ञान है, तो आप कृष्ण की बात समझ पाएंगे। तो मैं दो-तीन | रहा है; एक झेन फकीर। लेकिन उसका गुरु कभी-कभी पास से आपसे बात कहूं, शायद किसी की जिंदगी में वैसा ज्ञान हो, तो निकलता है और कहता है कि क्या बेकार! और वह बेचारा अपने उसकी उसको झलक मिल सकती है। बनाए हुए चित्रों को फेंक देता है। फिर एक दिन वह गुरु के पास वानगाग, एक बहुत बड़ा चित्रकार, आरलीज में एक खेत में जाता है कि मैं कितना ही सुंदर बनाता हूं, लेकिन तुम हो कि कह खड़े होकर चित्र बना रहा है। कैनवास पर अपना ब्रुश लेकर काम ही देते हो कि बेकार! और मुझे फाड़ना पड़ता है। मैं क्या करूं? में लगा है। दोपहर है, सूरज ऊपर सिर पर जल रहा है। वह भरी उसके गुरु ने कहा, पहले तू बांस हो जा, तब तू बांस का चित्र दोपहर का चित्र बना रहा है। उसकी जिंदगी में एक लालसा थी कि बना पाएगा। उसने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि मैं बांस हो 'मैं सूर्य के जितने चित्र बना सकू, बनाऊ। उसने जितने सूर्य के चित्र | जाऊं? उसके गुरु ने कहा, तू जा। आदमी की दुनिया को छोड़ दे; बनाए, किसी और आदमी ने नहीं बनाए। बांसों की दुनिया में चला जा। उन्हीं के पास बैठना, उन्हीं के पास - कोई किसान गुजरता है और वानगाग से पूछता है, तुम कौन | सोना; उनसे बात करना चीत करना, उन्हें प्रेम करना; उनको हो? वानगाग कहता है, मैं? मैं सर्य है। वह सर्य बना रहा है। आत्मसात करना, इंबाइब करना, उनको पी जाना, उनको खन और किसान अपना सिर पीटकर चला जाता है। सोचता है कि दिमाग हृदय में घुल जाने देना। उसने कहा कि मैं तो बातचीत करूंगा, खराब होगा। और ऐसा किसान ही सोचता है, ऐसा नहीं। सालभर | लेकिन बांस ? उसने कहा, तू फिक्र तो मत कर। आदमी भर बोले, तक वानगाग सूर्य के चित्र बनाता रहा। और फिर उसे पागलखाने वृक्ष तो बोलने को सदा तैयार हैं। लेकिन इतने सज्जन हैं कि अपनी में लोगों ने रख दिया। क्योंकि वह सूर्य के साथ आत्मसात हो गया। तरफ से मौन नहीं तोड़ते। तू जा। लोग उसकी चिकित्सा में लग गए। मित्र चिंतित हो गए। एक साल गया। एक वर्ष बीता। दो वर्ष बीते। तीन वर्ष बीते। गुरु ने खबर उसे पागलखाने में रखा कि उसका इलाज करें। | भेजी कि जाकर देखो, उसका क्या हुआ? ऐसा लगता है कि वह काश, उसके मित्रों को कृष्ण की इस बात का पता होता या | बांस हो गया होगा। आश्रम के अंतेवासी खोज करने गए। बांसों वानगाग को पता होता, तो यह दुर्घटना बच सकती थी। निश्चित की एक झुरमुट में वह खड़ा था। हवाएं बहती थीं। बांस डोलते थे। ही, पागल हो गया; कहता है, मैं सूर्य हूं! लेकिन अगर सालभर वह भी डोलता था। इतना सरल उसका चेहरा हो गया था, जैसे वानगाग की तरह किसी ने सूर्य को देखा हो, जाना हो, पहचाना | बांस ही हो। उसके डोलने में वही लोच थी, जो बांसों में है। जैसे हो, सूर्य की किरणों में उतरा हो, सूर्य की किरणों में नाचा हो, सूर्य हवा का तेज झोंका आता और बांस झुक जाते, ऐसे ही वह भी झुक की किरणों को पीया हो, तो कुछ आश्चर्य नहीं है कि इतना तादात्म्य | | जाता। कोई रेसिस्टेंस, कोई विरोध, कोई अकड़, जो आदमी की बन जाए कि वानगाग को लगे कि मैं सूर्य हूं। | जिंदगी का हिस्सा है, नहीं रह गई थी। बांस जमीन पर गिर जाते, अगर आपने कभी किसी को प्रेम किया है. तो किन्हीं-किन्हीं | जोर की आंधी आती, तो वह भी जमीन पर गिर जाता। आकाश से क्षणों में आपको लगता है कि आप वही हो गए, जिसे आपने प्रेम बादल बरसते और बांस आनंदित होकर पानी को लेते, तो वह भी किया है। और अगर आपको ऐसा नहीं लगा, तो आपने कभी प्रेम | आनंदित होकर पानी को लेता। 415
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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