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गीता दर्शन भाग-3 >
जानता है कि मैं साथ रहकर मुक्त न हो सकूंगा। अन्यथा भागने का कोई प्रयोजन नहीं है। भागता वही है, जो अपने को कमजोर पाता है।
हीरे-जवाहरात का ढेर लगा हो। मैं आंख बंद कर लेता हूं, इसलिए कि अगर दिखाई पड़ेगा, तो बहुत मुश्किल है कि मैं अपने पर काबू रख पाऊं। आंख बंद करके मैं यह नहीं बताता हूं कि मैं हीरे-जवाहरात के प्रति अनासक्त हूं; केवल इतना ही बताता हूं कि बहुत दीन हूं, बहुत कमजोर हूं। आंख खुली कि आसक्ति निर्मित हो जानी सुनिश्चित है। इसलिए आंख बंद करके बैठा हूं। लेकिन आंख बंद करने से आसक्तियां अगर मिटती होतीं, तो हम सब अपनी आंखें फोड़ डालते और मुक्त हो जाते। तब तो अंधे परम गति को उपलब्ध हो जाते !
इतना सरल नहीं है। ऐसे अपने को धोखा तो दिया जा सकता है, लेकिन मुक्ति का क्षण करीब नहीं आता है। भाग जाऊं छोड़कर; यहां हीरे-जवाहरात रखे हैं; दूर निकल जाऊं। ठीक है, दूर निकल जाऊंगा। मौजूद नहीं होगी चीज, मन कहीं और उलझ जाएगा। किसी वृक्ष के नीचे बैठकर किसी अरण्य में कंकड़-पत्थर बीनने लगूंगा, उन्हीं का ढेर सम्हालकर रख लूंगा। लेकिन इससे छुटकारा नहीं है।
कृष्ण का अपरिग्रह एक डीपर मीनिंग, एक गहरे अर्थ को सूचित करता है। वह अर्थ है, वस्तुएं जहां हैं, वहीं रहने दो; तुम जहां हो, वहीं रहो; दोनों के बीच सेतु निर्मित मत होने दो। दोनों के बीच कोई सेतु न बन जाए, दोनों के बीच आवागमन न हो। तुम तुम रहो; वस्तुओं को वस्तुएं रहने दो । न तुम वस्तुओं के हो जाओ, न वस्तुओं को समझो कि वे तुम्हारी हो गई हैं।
और ये दोनों एक ही चीज के दो पहलू हैं। जिस दिन आपने समझा, वस्तु मेरी हो गई; आप वस्तु के हो गए। जिस दिन आपने कहा कि यह वस्तु मेरी है, उस दिन आप पक्का जानना कि आप वस्तु के हो गए।
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मालकियत म्यूचुअल होती है, पारस्परिक होती है। आप किसी को गुलाम नहीं बना सकते बिना उसके गुलाम बने। यह असंभव है। जब भी आप किसी को गुलाम बनाते हैं, तो आपको पता हो, न पता हो, आप उसके गुलाम बन जाते हैं। गुलामी पारस्परिक है।
हां, यह दूसरी बात है कि एक गुलाम कुर्सी पर ऊपर बैठा है, दूसरा गुलाम कुर्सी के नीचे बैठा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । कई बार तो नीचे बैठा हुआ ज्यादा मुक्त होता है, ऊपर बैठे हुए से।
क्योंकि वह जो नीचे बैठा है, उसका काम शायद कुर्सी पर ऊपर बैठने वाले आदमी के बिना भी चल जाए। लेकिन वह जो कुर्सी के ऊपर बैठा है, उसका काम नीचे बैठे वाले के बिना नहीं चलने वाला है । उसकी डिपेंडेंस गहरी है, उसकी पराधीनता भारी है।
अगर हम एक सम्राट के सब गुलामों को मुक्त कर दें, तो गुलाम सम्राट की कोई खास याद न करेंगे। कहेंगे, बहुत अच्छा हुआ। लेकिन सम्राट ! सम्राट दिन-रात बेचैन और चिंतित होगा; क्योंकि | गुलामों के बिना वह ना कुछ हो जाता है। कुछ भी नहीं है ! और गुलाम तो सम्राट के बिना कुछ ज्यादा हो जाएंगे; लेकिन सम्राट गुलामों के बिना बहुत कम हो जाएगा । उसकी गुलामी भारी है। दिखाई नहीं पड़ती। दिखाई न पड़ने का उसने इंतजाम कर रखा है। वह गुलामों की गर्दन दबाए हुए है ऊपर से, बिना इस बात को | समझे हुए कि उसकी गर्दन भी गुलामों के हाथ में है।
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सब गुलामियां पारस्परिक होती हैं। सब बंधन पारस्परिक होते हैं। देखा है, रास्ते से एक सिपाही एक आदमी को हथकड़ियां डालकर ले जा रहा है। तो दिखाई तो ऐसा ही पड़ता है कि सिपाही मालिक है, हथकड़ियों में बंधा हुआ गुलाम गुलाम है, कैदी है। लेकिन अगर सिपाही उस कैदी को छोड़कर भाग खड़ा हो, तो कैदी उसका पीछा नहीं करेगा। लेकिन अगर कैदी भाग खड़ा हो, तो | सिपाही उसका पीछा करेगा; जान की आ जाएगी उसके ऊपर । | हथकड़ी तो पड़ी थी कैदी के हाथ में, लेकिन साथ ही वह सिपाही | के हाथ में भी पड़ी थी। महंगा पड़ जाएगा कैदी का भागना । दोनों बंधे हैं पारस्परिक। हां, एक जरा कुर्सी पर बैठा है, एक जरा कुर्सी के नीचे बैठा है। दोनों बंधे हैं।
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जिस चीज से भी हम संबंध निर्मित करते हैं, सेतु बन जाता है, और सेतु बनाने के लिए दो की जरूरत पड़ती है। जैसे नदी पर हम सेतु बनाते हैं, ब्रिज बनाते हैं। एक किनारे पर पाया रखकर ब्रिज न बनेगा। दूसरे किनारे पर भी रखना ही होगा। दोनों किनारों पर पाए रखे जाएंगे, तो सेतु बनेगा। तो जब हम किसी वस्तु या किसी व्यक्ति से संबंध निर्मित करते हैं, तो एक सेतु निर्मित होता है। एक किनारा हम होते हैं, एक किनारा वह होता है।
कृष्ण ने एक सेतु तोड़ने के लिए एकांत का प्रयोग किया, वह सेतु है व्यक्ति और व्यक्ति के बीच | दूसरा सेतु तोड़ने के लिए वह अपरिग्रह का प्रयोग करते हैं, वह सेतु है व्यक्ति और वस्तु के बीच।
और ध्यान रहे, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच सेतु रोज-रोज कम होते चले जाते हैं। अपने आप ही कम होते चले जाते हैं। और