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________________ - गीता दर्शन भाग-3 - इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत । | में सफल हो जाएंगे। तुम्हारी अकेले की प्रार्थना पर्याप्त होगी, इन सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप ।। २७ ।। सबके जीवन में भी प्रकाश डालने के लिए। मैं तुमसे प्रार्थना येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् । करूंगा, उस फकीर ने कहा कि तुम इन लोगों को भी बताओ कि ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। २८ ।। | तुमने अपनी घृणा पर विजय कैसे प्राप्त की? हे भरतवंशी अर्जुन, संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए | और उस बूढ़े आदमी ने कहा, बड़ी सरलता से। क्योंकि वे सब सुख-दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता दष्ट जिन्होंने मझे सताया था. और वे सब मढ. जिन्होंने मझे को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का परेशान किया था और जिनसे मझे घणा थी. वे सब मर चके हैं। आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो गया है, वे | अब कोई बचा ही नहीं, जिसे मैं घृणा करूं। आप ही बताइए मैं रागद्वेषादि द्वंद्व रूप मोह से मुक्त हुए और दृढ़ निश्चय वाले किसको घृणा करूं? पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं। एक सौ चार वर्ष उसकी उम्र है; करीब-करीब वे सारे लोग मर चुके हैं, जिनसे जिंदगी में कोई कलह, कोई संघर्ष था। कहने लगा, अब कोई घृणा की जरूरत ही न रही। ऐसे तो सभी के जीवन से 17 भु का स्मरण भी उन्हीं के मन में बीज बनता है, जो राग-द्वेष चला जाता है; सभी के जीवन से। शरीर शिथिल होने प्र इच्छाओं, द्वेषों और रागों के घास-पात से मुक्त हो गए | लगता है, कामवासना शिथिल हो जाती है। जिंदगी की दौड़ हैं। जैसे कोई माली नई जमीन को तैयार करे, तो बीज | उतरकर मौत के करीब पहुंचने लगती है, तो बहुत-से वेग अपने नहीं बो देता है सीधे ही। घास-पात को, व्यर्थ की जड़ों को उखाड़कर | आप शिथिल हो जाते हैं। प्रतिस्पर्धा, जैसे-जैसे आदमी मौत के फेंकता है, भूमि को तैयार करता है, फिर बीज डालता है। | करीब पहुंचता है, कम होने लगती है। लेकिन इस भांति भी अगर इच्छा और द्वेष से भरा हुआ चित्त इतनी घास-पात से भरा होता | कोई सोचता हो कि प्रार्थना में सफल हो जाएगा, तो संभव नहीं है। है, इतनी व्यर्थ की जड़ों से भरा होता है कि उसमें प्रार्थना का बीज ___ऊर्जा हो पूरी, शक्ति हो पूरी, अवसर पूरा का पूरा ऐसा हो, जहां पनप सके, इसकी कोई संभावना नहीं है। कि द्वेष जन्मता हो और द्वेष न जन्मे; जहां घृणा पैदा होती हो और ___ यह मन की, अपने ही हाथ से अपने को विषाक्त करने की जो घृणा पैदा न हो; जहां राग का जन्म होता है और राग न जन्मता हो; दौड़ है, यह जब तक समाप्त न हो जाए, तब तक प्रभु का भजन जहां सारी प्रतिकूल परिस्थिति हो और मन, जीवन की जो सहज असंभव है। | पाशविक वृत्तियां हैं, उनकी तरफ न दौड़ता हो, तो ही जीवन में सुना है मैंने, एक चर्च में एक फकीर बोलने आया था। कोई एक | प्रार्थना का बीज अंकुरित हो पाता है। हजार लोग उसे सुनने को इकट्ठे थे। उसने उन एक हजार लोगों से लेकिन हम सारे ऐसे लोग हैं कि हम चाहते तो हैं कि जीवन में पूछा कि मैं तुमसे पूछना चाहूंगा, तुममें से कोई ऐसा है जिसने घृणा प्रार्थना खिल जाए, और प्रभु का मिलन हो जाए, और आनंद घटित के ऊपर विजय पा ली हो? क्योंकि जिसने अभी घृणा पर विजय | | हो। और हम उन पर्वत शिखरों को देखने में समर्थ हो जाएं, जिन नहीं पाई, वह प्रार्थना करने में समर्थ न हो सकेगा। इसके पहले कि | पर प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता; और हम उन गहराइयों को जान मैं तुम्हें प्रार्थना के लिए कहूं, मैं यह जान लूं कि तुममें से कोई ऐसा लें अनुभव की, जहां अमृत निवास करता है; उन मंदिरों में प्रवेश है, जिसने घृणा पर विजय पा ली हो! कर जाएं, जहां परम प्रभु विराजमान है-ऐसी हम आकांक्षा करते ___ हजार लोगों में से कोई उठता हुआ नहीं मालूम पड़ा, लेकिन फिर | हैं। लेकिन चौबीस घंटे घृणा के बीज को पानी देते हैं, द्वेष को एक आदमी उठा। एक सौ चार वर्ष का एक बूढ़ा आदमी खड़ा हुआ। सम्हालते हैं, शत्रुता को पालते हैं। और सब तरह से जमीन जिस उस पादरी ने कहा, खुश हूं, प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, क्योंकि हजार तरह खराब की जा सकती है, वह सब करते हैं। और फिर हम में भी एक आदमी ऐसा मिल जाए, जिसने घृणा पर विजय पा ली सोचते हों कि कभी भगवत-भजन का फूल खिल सके, तो वह है, तो थोड़ा नहीं। और अगर एक आदमी भी इस चर्च में ऐसा है, संभव नहीं है। जिसने घृणा पर विजय पा ली है, तो हम प्रभु को इस चर्च में उतारने | - कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, जो अज्ञानीजन हैं, वे इच्छा और 446
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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