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________________ गीता दर्शन भाग-3 बुद्धि से, लेकिन तीसरा सत्य बुद्धि का सवाल नहीं रह जाता, प्रमाण का सवाल है। लेकिन एक बात हम तीसरे सत्य के संबंध में भी समझ सकते हैं। और वह यह कि जब अशांत चित्त होता है जगत में, तो शांत हो सके, इसकी असंभावना नहीं है। जब कोई आदमी बीमार हो सकता है जगत में, तो स्वस्थ हो सके, इसकी असंभावना क्यों कर है? जब दुखी हो सकता है कोई, तो दुख के पार हो सके, इसकी असंभावना क्या है ? और अगर बुद्धि से ही केवल सोचें, तो भी यह साफ होता है कि दुख का बोध ही यह बताता है कि हम दुख के बोध के पार हैं। अन्यथा बोध किसे होगा? और बोध भी तभी होता है, जब विपरीत हो, नहीं तो बोध नहीं होता है। अगर आपके भीतर आनंद जैसी कोई चीज न हो, तो आपको दुख का कभी भी पता नहीं चल सकता। कैसे चलेगा? किसको चलेगा? कौन जानेगा कि यह दुख है ? जो जानता है, उसे दुख की चोट पड़नी चाहिए, उसे दुख में अपने से विपरीत कुछ दिखाई पड़ना चाहिए। इसीलिए तो दुख अप्रीतिकर है। एक अनुभव तो हमारा है कि जीवन अशांति से भरा हुआ है। । दूसरा अनुभव हमारा नहीं है कि जीवन एक शांति का झरना भी हो सकता है; कि जीवन के रोएं - रोएं में एक शांति की गूंज भी हो सकती है; कि प्राण एक झील बन सकते हैं, जहां एक तरंग न उठती हो अशांति की । बुद्ध कहते हैं, वह भी संभव है। उसका प्रमाण मैं हूं। और बुद्ध चौथी बात भी कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि वह मुझे ही घट गया है, मैं कोई अपवाद नहीं हूं। सब को घट सकता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति गहरे में वही है। हमारे सब भेद, सब फासले ऊपरी हैं। भीतर अंतस में कोई फासला, कोई भेद नहीं है। भीतर वही है, एक ही। लेकिन उस भीतर तक कोई पहुंचे, तभी उसका पता चले, अन्यथा उसका पता चलना कठिन है। योग उसका मार्ग है। यह योग क्या है, जिससे चित्त उपराम को पहुंच जाए? तो तीन बातें आपसे कहूं, जिनसे योग की प्रक्रिया का आप उपयोग भी कर सकें और चित्त उपराम को पहुंच सके। एक, जब भी मन किसी चीज में कहे, सुख है, तो मन से एक बार और पूछना कि सच? पुराना अनुभव ऐसा कहता है ? किसी और व्यक्ति का अनुभव ऐसा कहता है? पृथ्वी पर कभी किसी ने कहा है कि इस बात से सुख मिल सकेगा ? अनंत अनंत लोगों का अनुभव क्या कहता है ? खुद के जीवन का अनुभव क्या कहता है ? बार-बार अनुभव किया है, उसका क्या निष्कर्ष है? एक बार प्रश्न | जरूर पूछ लेना। जब मन कहे, इसमें सुख है। ठिठककर, खड़े होकर पूछ लेना, सच सुख है? और जल्दी न करना; क्योंकि मन कहेगा कि कहां की बातों में पड़े हो; सुख का क्षण चूक जाएगा ! किन बातों में पड़े हो; अवसर खो जाएगा ! जल्दी न करना । मन इसीलिए जल्दी करता है कि अगर आप थोड़ी देर, एक क्षण के लिए भी सजग होकर रुक गए, तो सुख दिखाई नहीं पड़ेगा, दुख का दर्शन हो जाएगा। जब किसी हाथ में सुख मालूम पड़े और हाथ हाथ को लेने को उत्सुक हो जाए हाथ में, तक एक क्षण को सोचना कि बहुत हाथ हाथ में लिए, सुख पाया है? जब राह चलता कोई व्यक्ति सुंदर मालूम पड़े, तो एक क्षण रुककर अपने मन से पूछना कि सच में सौंदर्य पास आ जाए, तो कोई सुख पाया है ? जब किसी फूल को तोड़ लेने का मन हो जाए, तो पूछना कि बहुत बार फूल तोड़े, फिर उनका किया | क्या? थोड़ी देर में मसलकर रास्तों पर फेंक दिए ! जब भी नई कोई | गति मन में पैदा हो, तब एक क्षण ठिठककर खड़े होना । वह क्षण अवेयरनेस का, जागरूकता का, साक्षी का, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति को गहरा करेगा। और जैसे-जैसे यह प्रतीति गहरी होगी, वैसे-वैसे उपराम अवस्था आएगी। दूसरा सूत्र, जब भी कोई दुख आए, तब गौर से खोजना क पहले जब इसे सोचा था, तो यह दुख था? जब भी कोई दुख आए, तो सोचना लौटकर पीछे कि जब पहली दफा इसे चाहा था, तो यह दुख था ? नहीं; तब यह सुख था । अगर यह दुख होता, तो हम चाहते ही न। जब पहली दफे आलिंगन को हाथ फैलाए थे, तो यह दुख था? अगर दुख होता, तो हम भाग गए होते; आलिंगन के लिए हाथ न फैलाए होते। यह तो अब आलिंगन में बंधकर पता चलता है कि दुख है। तो जब भी दुख आए, तो लौटकर देखना कि | जब इसे चाहा था, तब यह दुख था ? और तब पता चलेगा इस क्षण में, फिर जागरूकता के क्षण में पता चलेगा कि सब दुख सुखों की तरह प्रतीत होते हैं, सुखों की तरह निमंत्रण देते हैं; बाद में दुख की तरह सिद्ध होते हैं। और यह भी प्रतीत होगा कि सब दुख अपने बुलाए आते हैं, हम खुद ही उनको बुलाकर आते हैं। कोई दुख बिना बुलाए नहीं आता। और हम बुलाकर इसीलिए आते हैं कि हमने सोचा था, सुख है। एक क्षण जब दुख के साथ ऐसा खड़े होकर देखेंगे, तो फिर पुनः मालूम पड़ेगा, जीवन सब दुख है। और तीसरी बात - सुख के साथ सोचना, दुख के साथ सोचना 154
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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