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गीता दर्शन भाग-3
प्रकृति को आज्ञा देने लगता है। एक आमूल रूपांतरण होता है। जब तक हम अधर्म में जीते हैं, तब तक प्रकृति हमें आज्ञा देती है; हम गुलामों तरह होते हैं। हम चलाए जाते हैं, चलते नहीं । हम खींचे जाते हैं, चलते नहीं। हम धकाए जाते हैं, हम चलते नहीं। हमारी जिंदगी हमारी वृत्तियों का जबर्दस्ती दबाव है। न तो आपने कभी क्रोध किया है; क्रोध करवाया गया है। न आपने कभी कामवासना की है; कामवासना करवाई गई है। आप सिर्फ एक विक्टिम हैं, एक शिकार हैं। चारों तरफ से आपको धक्के दिए जा रहे हैं।
जैसे हवा में पत्ता कंपता है। बाएं हवा बहती है, तो बाएं; और दाएं बहती है, तो दाएं। वह पत्ता भी शायद मन में सोचता होगा कि अब बाएं बहुत थक गया, अब जरा दाएं बहूं। जब हवा दाएं चलने लगती है, तब वह सोचता होगा, अब दाएं चलूं। वैसे ही आप सोचते हैं कि मैं क्रोध कर रहा हूं; कि मैं वासना से भर रहा हूं।
नहीं; आप सिर्फ भरे जाते हैं। आप बिलकुल हेल्पलेस विक्टिम, असहाय शिकार हैं।
धर्म से भरा हुआ व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठता है, वह प्रकृति आज्ञा देना शुरू करता है। वैसे व्यक्ति के जीवन में कामवासना वासना नहीं रह जाती। हां, वैसे व्यक्ति के जीवन में यदि काम की कोई घटना भी घटे – जैसे कि कुछ घटनाएं घटी हैं - तो उनके कारण बहुत ही दूसरे होते हैं।
जैसे जीसस के बाबत कहा जाता है कि वह क्वांरी मरियम से पैदा हुए। यह उदाहरण मैं दे रहा हूं, ताकि आपकी समझ में आ सके कृष्ण की बात । जीसस के बाबत कहा जाता है, वे क्वांरी मरियम से, वर्जिन मैरी से पैदा हुए। अब क्वांरी लड़की से कोई कैसे पैदा होगा ?
लेकिन हो सकता है। अगर कृष्ण के सूत्र को समझें, तो हो सकता है। मैरी, वह जीसस की मां, किसी कामवासना से भरकर अगर संभोग में न उतरी हो, वरन जीसस की आत्मा को जन्म देने के लिए ही अपने शरीर की प्रकृति को उसने आज्ञा दी हो, तो वह क्वांरी है।
और आपसे मैं कहूं कि आप जब किसी बच्चे को जन्म देते हैं, तब भी आपको पता नहीं होता कि उस बच्चे की आत्मा आपके चारों तरफ मंडरा रही है और आपको प्रेरित कर रही है कि आप उसे जन्म दें। लेकिन आप बेहोश हैं। उसके लिए प्रकृति आपको धक्के दिलाती और बच्चे का जन्म करवाती है।
लेकिन कामवासना जिस दिन धर्म से रूपांतरित होती है, उस दिन आप सचेत रूप से एक आत्मा से बात कर पाते हैं, जो आपके द्वारा जन्म लेना चाहती है। और अगर आप जन्म देना चाहते हैं, तो आप अपने शरीर को आज्ञा देते हैं कि वह वासना में उतरे, वह काम-कृत्य में उतरे। लेकिन यह आज्ञा होती है। और इसलिए इसमें | बुनियादी फर्क है।
जब आप कामवासना में उतरते हैं, तो आप बेहोश होते हैं। और जब ऐसा व्यक्ति कभी कामवासना में उतरता है, तो बिलकुल होश में होता है। वह अपने शरीर का उपयोग एक उपकरण, एक यंत्र की भांति कर रहा होता है। मालिक होता है। शरीर उसका उपयोग नहीं कर रहा होता है।
तो कृष्ण कहते हैं, मैं कामवासना भी हूं, लेकिन उनकी, जो धर्म से भरे हैं।
जीवन ने बहुत-से सत्य खोज लिए थे, जो धीरे-धीरे बार-बार खो जाते हैं, उनमें से एक सत्य यह भी था। इस संदर्भ में एक बात आपको कहना चाहूंगा।
आज सारी पृथ्वी पर संतति निरोध का आंदोलन है। सब जगह, किसी भी तरह आने वाले बच्चों को रोकना है। लेकिन एक ही उपाय मालूम पड़ता है और वह यह कि हमारे शरीर में कुछ फर्क किया जाए। और कोई उपाय नहीं मालूम पड़ता। एक ही उपाय मालूम पड़ता है कि हमारे शरीर की ग्रंथियां काट डाली जाएं, या | शरीर में ऐसे रासायनिक द्रव्य डाले जाएं, या ऐसा इंतजाम किया | जाए, कि आने वाली आत्मा जो हमारे भीतर प्रवेश करती है, वह अवसर न पा सके और प्रवेश न कर पाए।
यह बड़ी असहाय स्थिति है। इससे अन्यथा नहीं हो सकता क्या ? लेकिन आदमी देखकर नहीं कहा जा सकता है कि हो सकती है।
सकता है। दूसरी बात
कृष्ण के इस सूत्र से वह बात दूसरी निकलती है। हम व्यक्तियों को इतना सचेतन बना सकते हैं- शरीर को बदलकर नहीं, उनकी चेतना को बदलकर - कि जब कोई आत्मा उनसे निवेदन करे कि वे जन्म देने वाले बनें, तो वे इनकार कर सकें; या जरूरत हो, तो जन्म दे सकें।
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इस संबंध में मैं आपसे यह भी कहना चाहता हूं कि हजारों वर्ष | तक भारत ने इसका प्रयोग किया है। इस बात के सैकड़ों प्रमाण हैं। इस बात का प्रयोग किया गया है। इस प्रयोग की पूरी की पूरी साइंस विकसित की गई थी।