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गीता दर्शन भाग - 3 >
श्रीभगवानुवाच पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गतिं तात गच्छति ।। ४० ।। हे पार्थ, उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है, क्योंकि हे प्यारे, कोई भी शुभ कर्म करने वाला अर्थात भगवत- अर्थ कर्म करने वाला, दुर्गति को नहीं प्राप्त होता है।
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र्जुन ने पूछा है कृष्ण से कि यदि न पहुंच पाऊं उस परलोक तक, उस प्रभु तक, जिसकी ओर तुमने इशारा किया है, और छूट जाए यह संसार भी मेरा; साधना न कर पाऊं पूरी, मन न हो पाए थिर, संयम न सध पाए, और छूट जाए यह संसार भी मेरा तो कहीं ऐसा तो न होगा कि मैं इसे भी खो दूं और उसे भी खो दूं ! तो कृष्ण उसे उत्तर में कह रहे हैं; बहुत कीमती दो बातें इस उत्तर में उन्होंने कही हैं।
एक तो उन्होंने यह कहा कि शुभ हैं कर्म जिसके, वह कभी भी दुर्गति को उपलब्ध नहीं होता है । और चैतन्य है जो, प्रभु की ओर उन्मुख चैतन्य है जो, इस लोक में या परलोक में, उसका कोई भी | नाश नहीं है। इन दो बातों को ठीक से समझ लें।
पहली बात, चेतना का इस लोक में या उस लोक में, कोई नाश नहीं है। क्यों?
चेतना विनष्ट होती ही नहीं । चेतना के विनाश का कोई उपाय नहीं है। विनाश केवल उन्हीं चीजों का होता है, जो संयोग होती हैं, कंपाउंड होती हैं। सिर्फ संयोग का विनाश होता है, तत्व का विनाश नहीं होता।
इसे ऐसा समझें कि जो चीज किन्हीं चीजों से जुड़कर बनती है, वह विनष्ट हो सकती है। लेकिन जो चीज बिना किसी के जुड़े है, वह विनष्ट नहीं होती। हम सिर्फ जोड़ तोड़ सकते हैं और जोड़ बना सकते हैं।
इसे ऐसा भी समझ लें कि तत्व का कोई निर्माण नहीं होता; निर्माण केवल संयोगों का होता है। एक बैलगाड़ी हम बनाते हैं या एक मशीन बनाते हैं, एक कार बनाते हैं, एक साइकिल बनाते हैं। साइकिल बनती है, साइकिल नष्ट हो जाएगी। जो भी बनेगा, वह नष्ट हो जाएगा। जिसका प्रारंभ है, उसका अंत भी निश्चित है । प्रारंभ में ही अंत निश्चित हो जाता है। और जन्म में ही मृत्यु की
मुहर लग जाती है।
लेकिन हम पदार्थ को नष्ट नहीं कर सकते, क्योंकि पदार्थ को हम बना भी नहीं सकते हैं। हम केवल संयोग बना सकते हैं। हम पानी को बना सकते हैं। हाइड्रोजन और आक्सीजन को मिला दें, | तो पानी बन जाएगा। फिर हाइड्रोजन आक्सीजन को अलग कर दें, | तो पानी विनष्ट हो जाएगा। लेकिन आक्सीजन ? आक्सीजन को | हम न बना सकेंगे। या हो सकता है, किसी दिन हम बना सकें। किसी दिन यह हो सकता है - जिसकी संभावना बढ़ती जाती है कि हम आक्सीजन को भी बना सकें। जिस दिन हम बना | सकेंगे, उस दिन आक्सीजन एलिमेंट नहीं रहेगी, कंपाउंड हो जाएगी। उस दिन आक्सीजन तत्व नहीं कही जा सकेगी, संयोग हो जाएगी। किसी दिन हम आक्सीजन को बना लेंगे इलेक्ट्रान्स से, न्यूट्रान्स से, और भी जो अंतिम विघटन हो सकता है पदार्थ का, उससे । लेकिन इलेक्ट्रान को फिर हम न बना सकेंगे।
तत्व वह है, जिसे हम न बना सकेंगे। इस देश ने तत्व की परिभाषा की है, वह जिसे हम पैदा न कर सकेंगे और जिसे हम नष्ट न कर सकेंगे। अगर किसी तत्व को हम नष्ट कर लेते हैं, तो सिर्फ इतना ही सिद्ध होता है कि हमने गलती से उसे तत्व समझा था; वह तत्व था नहीं। अगर किसी तत्व को हम बना लेते हैं, तो उसका मतलब इतना ही हुआ कि हम गलती से उसे तत्व कह रहे हैं; वह तत्व है नहीं।
दो तत्व हैं जगत में । एक, जो हमें चारों तरफ फैला हुआ जड़ का विस्तार दिखाई पड़ता है, मैटर का। वह एक तत्व है। और एक जीवन चैतन्य, जो इस जगत में फैले विस्तार को देखता और जानता और अनुभव करता है । वह एक तत्व है, चैतन्य, चेतना । इन दो तत्वों का न कोई निर्माण है और न कोई विनाश है। न तो चेतना नष्ट हो सकती है. न पदार्थ नष्ट हो सकता है।
हां, संयोग नष्ट हो सकते हैं। मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मैं सिर्फ | एक संयोग हूं; आत्मा और शरीर का एक जोड़ हूं मैं। मेरे नाम से जो जाना जाता है, वह संयोग है। एक दिन पैदा हुआ और एक दिन विसर्जित हो जाएगा। कोई छाती में छुरा भोंक दे, तो मैं मर जाऊंगा। | आत्मा नहीं मरेगी, जो मेरे मैं के पीछे खड़ी है; और शरीर भी नहीं मरेगा, जो मेरे मैं के बाहर खड़ा है। शरीर पदार्थ की तरह मौजूद | रहेगा, आत्मा चेतना की तरह मौजूद रहेगी, लेकिन दोनों के बीच | का संबंध टूट जाएगा। वह संबंध मैं हूं। वह संबंध मेरा नाम-रूप है । वह संबंध विघटित हो जाएगा। वह संबंध निर्मित हुआ, विनष्ट
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