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- चित्त वृत्ति निरोध -
तुम्हारे उत्तर नहीं चाहिए। तुम्हारे शास्त्र, तुम्हारे सिद्धांत तुम्ही सम्हालो। मुझे कृपा कर भीतर जाने दो। मैं ही जानना चाहता हूं कि क्या है। मुझे कुछ भी पता नहीं है।
पूछे। और तब भीतर एक पर्दा गिर जाएगा। एक झीना-सा पर्दा आभा का, सिर्फ आभा का पर्दा है, वह सिकुड़ जाएगा। शरीर अलग, आप अलग हो जाएंगे।
और जिस क्षण यह अनुभव होता है कि शरीर अलग, मैं अलग; इंद्रियां अलग, मैं अलग; फिर चेतना चलायमान नहीं होती है। फिर प्रभु में रम जाती है। फिर प्रभु से एक हो जाती है। फिर कभी प्रभु के घर को छोड़कर जाती नहीं। फिर कहीं भी जाए, प्रभु के घर में ही रहती हुई जाती है। फिर मंदिर से चली जाए दुकान पर, तो मंदिर दुकान पर पहुंच जाता है। रास्ते से गुजरे, तो भी जानता है व्यक्ति कि मैं प्रभु में ठहरा हुआ हूं। चलेगा शरीर, मैं ठहरा हुआ हूं। कटेगा शरीर, मैं अनकटा हूं। छिदेगा शरीर, मैं अनछिदा हूं। मरेगा शरीर, मैं अमृत हूं। वह जानता ही रहता है; वह जानता ही रहता है।
ऐसी प्रतीति प्रभु में थिर कर जाती है। और प्रभु में थिरता आनंद
आज इतना ही।
पांच मिनट संन्यासी कीर्तन करते हैं, उनका प्रसाद लेते जाएं। उनके पास देने को आपके लिए कुछ और नहीं है, इसलिए उठकर जाएंगे, तो उनको लगेगा कि उनका प्रसाद आप नहीं लेते हैं! बैठे रहें। और उनके साथ सम्मिलित हों, तो ही प्रसाद मिलेगा, अन्यथा प्रसाद मिलने का कोई और उपाय नहीं है।
गाएं। उनके गीत में एक हो जाएं। ताली बजाएं। डोलें। आनंदित हों। पांच मिनट के लिए भूलें उस सब को जो हमारा चित्त है, और एक नए चित्त की यात्रा पर निकलें।
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