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अहंकार खोने के दो ढंग
टेंशन इज़ रिलैक्सेशन ।
पुरुष के लिए गहरे तनाव से विश्राम आएगा। जैसे कि तीर को खींचा है प्रत्यंचा पर। खींचते गए, खींचते गए, पूरा खींच लिया। फिर कभी आपने खयाल किया है कि बड़ी उलटी घटना घटती है ! तीर की प्रत्यंचा को खींचते हैं पीछे की तरफ, और जाता है आगे की तरफ। फिर एक क्षण आता है कि और नहीं खींच सकते और प्रत्यंचा छूट जाती है, और तीर आगे की यात्रा पर निकल जाता है।
आप तो पीछे की तरफ खींच रहे थे, यात्रा तो उलटी हो गई। आप तो खींच रहे थे - मैं, मैं, मैं पूरा खींचते चले जाएं, एक दिन आप अचानक पाएंगे, बिखराव आ गया; तीर छूट गया, प्रत्यंचा टूट गई; ना मैं की तरफ यात्रा शुरू हो गई; परमात्मा में उपलब्धि हो गई। लेकिन मैं को खींचकर होगी पुरुष की उपलब्धि । स्त्री मैं को ऐसे ही समर्पित कर सकती है। इसलिए स्त्री और पुरुष के बीच कभी अंडरस्टैंडिंग नहीं हो पाती।
एक स्त्री ने आकर मुझे कहा कि मुझे संन्यास लेना है, लेकिन मेरे पति कहते हैं, क्या होगा संन्यास लेने से मैं उनको कैसे समझाऊं ? मुझे तो लग रहा है, सब कुछ होगा। लेकिन वे कहते हैं, बताओ क्या होगा? कैसे होगा ? मुझे तो लग रहा है कि यह खयाल ही कि संन्यास लेना है, मेरे भीतर कुछ होना शुरू हो गया। जब लूंगी, तब तो होगा। अभी तो खयाल से कुछ मेरे भीतर हो रहा है | और वे कहते हैं, क्या होगा? कैसे होगा ? मुझे बताओ। मुझे भी तो सिद्ध करो।
वह स्त्री सिद्ध न कर पाएगी। सिद्ध करने में पड़ेगी, तो कठिनाई में पड़ेगी। जो हो रहा है, वह भी बंद हो जाएगा। सिद्ध करना पुरुष चित्त का लक्षण है। स्वीकार कर लेना स्त्री चित्त का लक्षण है। और सिद्ध करके भी स्वीकार ही तो उपलब्ध होता है। मगर जरा लंबी यात्रा है। स्त्री बिना सिद्ध किए भी स्वीकार कर सकती है। और स्वीकार करते ही सिद्ध हो जाता है। बस, इतना ही फर्क होगा, आगे-पीछे का । पुरुष पहले सिद्ध करेगा, फिर स्वीकार करेगा। स्त्री पहले स्वीकार लेगी, और फिर सिद्ध कर लेगी। पर इतना फर्क होगा।
और वे पुरुष ठीक पूछ रहे हैं। उनका पूछना बिलकुल दुरुस्त है। लेकिन वह अपने लिए ही पूछें, तो ठीक है; स्त्री के लिए न पूछें। उसे अपने मार्ग से जाने दें। उसे अपने मार्ग से जाने दें। हां, जब उनका सवाल हो खुद का, तो पूरा सिद्ध करके फिर संन्यास लें। लेकिन स्त्री को जाने दें। जिसे बिना सिद्ध किए संन्यास का भाव
आता हो, उसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं रही, क्योंकि सिद्ध करने की जरूरत इतनी ही है कि भाव आ जाए।
लेकिन पुरुष सोचेगा, विचारेगा, गणित लगाएगा, हिसाब लगाएगा, हर चीज की जांच करेगा, कि होगा कि नहीं होगा ? कितना होगा? जितना छोड़ेंगे, जितना कष्ट पाएंगे, उससे सुख ज्यादा होगा कि कम होगा? वह यह सब सोचेगा।
और अगर कोई स्त्री पुरुष से बहुत प्रभावित हो जाए, तो | नुकसान में पड़ेगी। और अगर कोई पुरुष स्त्री से बहुत प्रभावित हो | जाए, तो नुकसान में पड़ेगा। और दुर्भाग्य यह है कि पुरुष स्त्रियों से प्रभावित होते हैं, और स्त्रियां पुरुषों से प्रभावित होती हैं। ऐसा होता है। और दोनों का रुख जीवन के प्रति बहुत भिन्न है।
करीब-करीब ऐसा कि जैसे हम जमीन पर एक वर्तुल, एक सर्किल खींच दें। उस वर्तुल के एक बिंदु पर पुरुष खड़ा हो, बाईं तरफ मुंह किए; उसी बिंदु पर स्त्री खड़ी हो, दाईं तरफ मुंह किए। दोनों की पीठें मिलती हों। पुरुष और स्त्रियां बहुत कोशिश करते हैं कि दोनों आमने-सामने से आलिंगन में मिल जाएं। वह घटना घटती नहीं। धोखा ही सिद्ध होती है। क्योंकि उनके रुख बड़े | विपरीत हैं। उनकी दोनों की पीठ ही मिल सकती हैं।
लेकिन अगर वे दोनों अपनी-अपनी यात्रा पर निकल जाएं, तो वर्तुल पर एक बिंदु ऐसा भी आएगा, जहां उन दोनों के चेहरे मिल जाएंगे।
दोनों चले जाएं अपनी यात्रा पर; पुरुष बाएं चला जाए, स्त्री दाएं | चली जाए। और पुरुष न कहे कि दाएं जाने से कुछ न होगा, क्योंकि मैं बाएं जा रहा हूं। और स्त्री न कहे कि बाएं जाने से क्या होने वाला है, मुझे तो दाएं जाने से बहुत कुछ हो रहा है।
मत लड़ो। दाएं-बाएं ही चले जाओ। जरूर वह बिंदु एक दिन आ | जाएगा तुम्हारी ही यात्रा से, जहां तुम आमने-सामने मिल जाओगे।
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लेकिन वह बिंदु अंतिम बिंदु है। पड़ाव का प्रारंभ बिंदु नहीं है यात्रा | का; मंजिल का अंतिम बिंदु है। और इतनी समझ हो, तो स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के सहयोगी हो जाते हैं। इतनी समझ न हो, तो एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं और जीवनभर बाधा डालते हैं।
कृष्ण कहते हैं, ऐसा जो इंद्रियों के पार गया हुआ व्यक्ति है, उसके लिए परमात्मा दृश्य हो जाता है। निश्चित ही हो जाता है। | क्योंकि निराकार तब आकारों में खंडित नहीं होता, तब निराकार अपनी समग्रता में प्रकट होता है।
ध्यान रहे, आकार को देखना हो, तो आपके भीतर अहंकार