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<< गीता दर्शन भाग-3 >
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । भुलाने के लिए, मिटाने के लिए, वे विश्वास करते हैं। लेकिन तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।। २१।। | भीतर का अविश्वास और गहरे उतर जाता है, मिटता नहीं है। स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते।
विश्वासी कभी भी अविश्वास को नहीं मिटा पाता। क्योंकि लभते च ततः कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।। २२ । । । | विश्वास होता ही किसी अविश्वास के खिलाफ है। विश्वास की जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है। श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उस ही श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूं। तथा वह पुरुष उस अभाव है। श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है इस बात को ठीक से समझ लें। और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित श्रद्धा विश्वास नहीं है, अविश्वास का अभाव है। जिसके हृदय भोगों को निःसंदेह प्राप्त होता है। | में अविश्वास नहीं है, वह विश्वास भी नहीं करता, क्योंकि
| विश्वास किसलिए करेगा! एक आदमी जब कहता है कि मैं ईश्वर
में विश्वास करता हूं, तब वह जितना जोर लगाकर कहता है कि मैं 7 भु की खोज में किस नाम से यात्रा पर निकला कोई, | विश्वास करता हूं, जानना कि उतना ही ताकतवर अविश्वास भीतर प्र यह महत्वपूर्ण नहीं है; और किस मंदिर से प्रवेश किया बैठा है। वह उसी अविश्वास को इतना जोर लगाकर दबाता है।
उसने, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। किस शास्त्र को अन्यथा अविश्वास न हो, तो विश्वास करने का कोई कारण नहीं माना, यह भी महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण सिर्फ इतना है कि उसका रह जाता। भाव श्रद्धा का था। वह राम को भजता है, कि कृष्ण को भजता है, ___ आप कभी भी ऐसा नहीं कहते कि मैं सूरज में विश्वास करता कि जीसस को भजता है, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। वह भजता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। आप है, इससे फर्क पड़ता है। किस बहाने से वह प्रभु और अपने बीच कभी नहीं कहते कि यह आकाश, जो चारों तरफ है मेरे, इसमें मैं सेतु निर्मित करता है, वे बहाने बेकार हैं। असली बात यही है कि विश्वास करता हूं। लेकिन आप कहते हैं, मैं ईश्वर में विश्वास वह प्रभु-मिलन के लिए आतुर है; वह श्रद्धा ही सार्थक है। करता हूं। और अगर कोई आदमी आकर कहे कि मैं सूरज में
इसे ऐसा समझें कि यदि परमात्मा का सवाल भी न हो, और कोई | विश्वास करता हूं, तो क्या उसका विश्वास इस बात की खबर न व्यक्ति परम श्रद्धा से आपूरित हो; किसी के प्रति भी नहीं, सिर्फ होगा कि वह आदमी अंधा है। सिर्फ अंधे ही सूरज में विश्वास कर श्रद्धा का उसके हृदय में आविर्भाव होता हो, श्रद्धा उसके हृदय से सकते हैं। जिनके पास आंख है, उनकी सूरज में श्रद्धा होती है। विकीर्णित होती हो; किसी के चरणों में भी नहीं, लेकिन उसके श्रद्धा का अर्थ है, अविश्वास नहीं होता। भीतर से श्रद्धा का झरना बहता हो, तो भी वह परमात्मा को उपलब्ध आप सूरज में विश्वास नहीं करते हैं, आप जानते हैं कि सूरज हो जाएगा। नास्तिक भी पहुंच सकता है वहां, अगर उसके हृदय है। संदेह ही नहीं किया कभी, तो विश्वास करने का कोई सवाल से श्रद्धा के फूल झरते हैं। और आस्तिक भी वहां नहीं पहुंच पाएगा, नहीं है। बीमार ही नहीं हुए कभी, तो किसी दवा लेने की कोई अगर उसके जीवन में श्रद्धा का झरना नहीं है।
जरूरत नहीं है। तो श्रद्धा को थोड़ा इस सूत्र में ठीक से समझ लेना जरूरी है। विश्वास जो है, एंटीडोट है डाउट का। वह जो संदेह भीतर बैठा श्रद्धा से क्या अर्थ है? श्रद्धा से अर्थ. विश्वास नहीं है. बिलीफ है. उसको दबाने का इंतजाम है विश्वास। इसलिए आदमी कहता नहीं है।
है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। लेकिन कभी नहीं कहता कि मैं यह बहुत मजे की बात है कि जो लोग भी विश्वास करते हैं, वे पदार्थ में विश्वास करता हूं। पदार्थ में कोई अविश्वास ही नहीं है, अविश्वासी होते हैं। उनके भीतर अविश्वास छिपा होता है। उसी इसलिए विश्वास की कोई जरूरत नहीं पड़ती है। और अगर कोई अविश्वास को दबाने के लिए वे विश्वास करते हैं। भीतर कहता हो, तो उसे शक होगा कि वह आदमी अंधा है। आंख वाला अविश्वास होता है, उसे दबाने के लिए, उसे झुठलाने के लिए, आदमी सूरज में विश्वास नहीं करता, श्रद्धा करता है।