________________
< गीता दर्शन भाग-3
युञ्जनेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । नहीं; लेकिन निराश होने का कोई भी कारण नहीं है। इससे शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ।। १५ ।। | केवल इतना ही सिद्ध होता है कि हमें स्मरण की प्रक्रिया ही ज्ञात इस प्रकार आत्मा को निरंतर परमेश्वर के स्वरूप में लगाता नहीं है। इससे कुछ और सिद्ध नहीं होता। और यह आपसे कहूं कि हुआ, स्वाधीन मन वाला योगी मेरे में स्थितरूप परमानंद जो व्यक्ति एक क्षण भी ठीक से स्मरण कर ले, उसकी निरंतर की पराकाष्ठा वाली शांति को प्राप्त होता है। स्मरण-व्यवस्था अपने आप नियत और निश्चित हो जाती है।
क्यों? क्योंकि हमारे हाथ में एक क्षण से ज्यादा कभी भी होता नहीं।
कोई उपाय नहीं कि दो क्षण हमारे हाथ में एक साथ हो जाएं। एक नरंतर परमात्मा में चेतना को लगाता हुआ योगी! ही क्षण होता है हमारे हाथ में। जब भी होता है, एक ही क्षण होता IOI सुबह जिन सूत्रों पर हमने बात की है, उन्हीं सूत्रों की है। एक जब रिक्त हो जाता है, तब दूसरा हाथ में आता है। एक
निष्पत्ति के रूप में यह सूत्र है। समझने जैसी बात इसमें जब जा चुका होता है, तब दूसरे का आगमन होता है। लेकिन हमारे निरंतर है। निरंतर शब्द को समझ लेने जैसा है। निरंतर का अर्थ है, हाथ में जब भी होता है, एक ही क्षण होता है। इससे ज्यादा क्षण : एक भी क्षण व्यवधान न हो।
हमारे पास नहीं होते। निरंतर का अर्थ है, एक भी क्षण विस्मरण न हो। जागते ही नहीं, इसलिए अगर एक क्षण में भी प्रभु-स्मरण की प्रक्रिया में प्रवेश निद्रा में भी भीतर एक अंतर-धारा प्रभु की ओर बहती ही हो जाए, तो निरंतर में प्रवेश होने में कोई भी बाधा नहीं है। क्योंकि रहे-सतत, कंटिन्यूड, जरा भी व्यवधान न हो-तो निरंतर ध्यान | एक क्षण में जो प्रवेश को जान गया, वह हर क्षण में उस प्रवेश को हुआ, तो निरंतर स्मरण हुआ।
उपलब्ध हो सकेगा। और एक ही क्षण हमारे पास होता है। इसलिए __ जैसे श्वास चलती है। चाहे काम करते हों, तो चलती है; चाहे | बहुत अड़चन नहीं है। कुंजी पास नहीं है, यही अड़चन है। विश्राम करते हों, तो चलती है। याद रखें, तो चलती है; न याद | निरंतर स्मरण करने का एक ही अर्थ है कि जिसे क्षण में भी रखें, तो भी चलती है। जागते रहें, तो चलती है; सो जाएं, तो भी स्मरण करने की क्षमता आ गई, वह निरंतर स्मरण करने की पात्रता चलती रहती है। श्वास की भांति ही जब प्रभु की ओर स्मरण, प्रभु | पा ही जाता है। लेकिन क्षण में भी स्मरण की पात्रता नहीं है। की प्यास, प्रभु की लगन भीतर चलने लगे, तो अर्थ होगा पूरा और ईश्वर को हम अक्सर उधार लेकर जीते हैं। यह शब्द भी निरंतर का; तो निरंतर का अर्थ खयाल में आएगा।
हमने किसी से सुन लिया होता है। यह प्रतिमा भी हमने किसी से लेकिन हमें तो एक क्षण भी प्रभु को स्मरण करना कठिन है। सीख ली होती है। यह परमात्मा का रूप, लक्षण भी हमने किसी निरंतर तो असंभव मालूम होगा। एक क्षण भी जब स्मरण करते हैं, । से सीख लिया होता है। सब उधार है। यह हमारे प्राणों का तब भी प्राणों की कोई अकुलाहट भीतर नहीं होती। एक क्षण भी | आथेंटिक, प्रामाणिक कोई अनुभव नहीं होता है पीछे। यह कहीं जब स्मरण करते हैं, तब भी प्राणों की परिपूर्णता उसमें संलग्न नहीं हमारे प्राणों की अपनी प्रतीति और साक्षात नहीं होता है। इसीलिए होती। एक क्षण भी जब पुकारते हैं, तो ऐसे ही ऊपर से, सतह से | क्षण में भी पूरा नहीं हो पाता, सतत और निरंतर तो पूरे होने का कोई पुकारते हैं। वह प्राणों की अंतर-गहराइयों तक उसका कोई प्रभाव, सवाल नहीं है। कोई संस्पर्श नहीं होता।
इसलिए पहले सूत्र में कृष्ण ने कहा है कि जो अंतर-गुफा में और कृष्ण तो कहते हैं कि ऐसा निरंतर प्रभु की ओर बहता हुआ | प्रवेश कर जाए, एकांत को उपलब्ध हो जाए। और उसमें एक शब्द व्यक्ति ही मुझे उपलब्ध होता है, प्रभु को उपलब्ध होता है, प्रभु में छूट गया, मुझे अभी याद दिलाया कि जो अपरिग्रह चित्त का हो। प्रतिष्ठा पाता है। तो इसका तो यह अर्थ हुआ कि शेष सब जन निराश उसकी मैं कल बात नहीं कर पाया, उसकी भी थोड़ी आपसे बात हो जाएं। एक क्षण भी नहीं हो पाती है पुकार, तो निरंतर तो कैसे हो | कर लूं। पाएगी! साफ है, सीधी बात है कि सब निराश हो जाएं। और जो भी | एकांत का मैंने अर्थ आपको कहा। जिसके भीतर भीड़ न रह निरंतर के इस अर्थ को समझेंगे, प्राथमिक रूप से निराशा अनुभव | जाए। जिसके भीतर दूसरे के प्रतिबिंबों का आकर्षण न रह जाए। होगी, कि फिर हमारे लिए कोई द्वार नहीं, मार्ग नहीं। | जिसके भीतर दूसरों के प्रतिबिंब जैसे आईने से हमने धूल साफ कर
[104]