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मन साधन बन जाए
साथ ही शाश्वत शांति उतर आती है।
कहेगा। मन ही कहेगा, मुझे शांति दो। और आप मन को ही मन और एक बार आदमी इस कला में निष्णात हो जाए कि जब चाहे | के खिलाफ लड़ाने लगेंगे। एक मन का हिस्सा कहेगा, शांति मन को रोक दे, जब चाहे मन को गतिमान कर दे, तो वैसा व्यक्ति चाहिए। और एक मन का हिस्सा अशांति को बुनता चला जाएगा। संसार में भी और परमात्मा में भी, दोनों में समान रूप से जीने फिर आप दोनों पर एक साथ पैर रख रहे हैं, एक्सेलरेटर पर भी लगता है। और वैसा व्यक्ति फिर कह पाता है कि संसार भी | और ब्रेक पर भी। अब एक्सिडेंट सुनिश्चित है। परमात्मा का रूप है। फिर वैसे व्यक्ति को संसार और परमात्मा में और हम में से अधिक लोग एक्सिडेंट हैं। आदमी नहीं, कोई शत्रुता नहीं दिखाई पड़ती।
दुर्घटनाएं हैं। हम में से अधिक लोग दुर्घटनाएं हैं। लेकिन चूंकि शत्रता हमें दिखाई पड़ती है. क्योंकि हमारा मन दोनों तरफ नहीं सभी दर्घटनाएं हैं. इसलिए पता लगाना मश्किल होता है। हम सब मुड़ पाता। हमारी चेतना एक ही तरफ फिक्स्ड, फोकस्ड हो जाती दुर्घटनाएं हैं, क्योंकि जो हम हो सकते थे, वह हम नहीं हो पाए हैं; है। हमारी हालत ऐसी है, जैसे किसी आदमी की गर्दन को लकवा और जो हमें नहीं होना चाहिए था, वह हम हो गए हैं। लग जाए और वह एक ही तरफ देख पाए; सिर न घुमा पाए। हमारी | | इसलिए तो इतनी पीड़ा है, इतना दुख है, इतनी परेशानी है। वैसी मन की हालत है-लकवा खा गई, पैरेलाइज्ड। बस, संसार | हमारी पूरी जिंदगी एक लंबी दुर्घटना है। हर चीज दुर्घटना है। प्रेम को ही देख पाते हैं। जब इधर देखना चाहते हैं, तो कुछ मुड़ नहीं | करने जाओ, घृणा हाथ लग जाती है। मित्रता बनाओ, शत्रुता बन पाता। पर इसमें कसूर मन का नहीं है। कसूर आपका है। जाती है। किसी को सुख देने जाओ, दुख के सिवा कुछ भी नहीं
लेकिन इधर मैं देखता हूं कि अधिक धार्मिक लोग मन का कसूर दिया जाता। किसी से अच्छी बात बोलो, वह न मालूम क्या समझ समझकर गालियां देते रहते हैं। वह जो गालियां दे रहा है, वह भी | | लेता है। वह कुछ अच्छी बात बोलता है, हम न मालूम क्या समझ मन है। वह जो कह रहा है, मन चंचल है, वह भी मन है। क्योंकि | | लेते हैं। न कोई किसी को समझता, न कोई किसी से सहानुभूति वह जो मन नहीं है, वह तो बोला ही नहीं कभी; वह तो अबोल है। | कर पाता, न कोई किसी पर करुणा कर पाता। सब विक्षिप्त की तरह वह जो मन नहीं है, उसने तो गाली क्या, कभी प्रशंसा भी नहीं की। दौड़ते चले जाते हैं। और हर चीज उलझती चली जाती है। उससे तो शब्द भी नहीं निकला है। वह जो धार्मिक आदमी बेचैनी | ___ इसीलिए तो बूढ़े आदमी कहते हैं कि बचपन बड़ा सुखद था। जाहिर कर रहा है कि बड़ा खराब है यह मन, बड़ा दुष्ट है, इससे | बचपन में था क्या आपके जिसकी वजह से सुखद था? हां, ये कैसे छुटकारा पाऊं! वह मन ही कह रहा है ये सब बातें। क्योंकि बुढ़ापे में जितनी आपने जटिलताएं पैदा कर लीं, ये भर नहीं थीं। मन के बाहर जो है वहां तो मौन है, सतत मौन है। वहां तो कभी | और कोई खास बात नहीं थी। ये जितने उपद्रव आपने इकट्ठे कर कोई शब्द की झंकार पैदा नहीं हुई। वहां तो निःशब्द का निवास है। | लिए बूढ़े होते-होते, ये नहीं थे। कोई पाजिटिव, खास बात नहीं थी
वह मन ही कह रहा है। और मन की यह खूबी है कि वह अपने | | बचपन में। अगर होती, तो बुढ़ापा इतना उलझा हुआ नहीं हो विपरीत भी वक्तव्य देता है। देना ही पड़ता है। जिसे प्रतिदिन सकता था। आपके पास कोई हीरे नहीं थे। अगर होते तो और बड़े बदलना पड़ेगा, उसे अपने ही वक्तव्य के खिलाफ बोलना पड़ेगा। हो गए होते; उनकी और ग्रोथ हो गई होती। कुछ नहीं था। बचपन एक क्षण पहले उसने कहा था कि मैं तुम्हारे लिए जान दे दूंगा। और सिर्फ कोरी स्लेट थी। एक क्षण बाद सोचता है कि तुम्हारी जान ले लूं! एक क्षण पहले । हां, बुढ़ापे में दुख होता है। कुछ लिखा नहीं था उस पर, कोई कहा था, तुम्हारे बिना एक क्षण न जी सकूँगा; और एक क्षण बाद | | अमृत वचन नहीं लिखे थे, कोई वेद नहीं लिखा था उस पर; सिर्फ सोचता है कि इससे छुटकारा कैसे हो!
कोरी स्लेट थी। लेकिन बुढ़ापे में पाते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे स्थिति बदलती है, मन बदल जाता है। मन कभी कंसिस्टेंट नहीं कार्बन का बहुत उपयोग किया गया हो, तो जो उसकी गति हो जाती हो सकता। कोई उपाय नहीं है। उसको इनकंसिस्टेंट होना ही | है, ऐसी सब चित्त की स्थिति हो जाती है। पड़ेगा, असंगत होना ही पड़ेगा। हर बार बदलना पड़ेगा; हर बार कुछ समझ में नहीं आता कि क्या लिखा है। और फिर भी रूप नया लेना पड़ेगा। तो मन अपने ही खिलाफ बोलता चला लिखते चले जाते हैं, उसके ऊपर ही लिखते चले जाते हैं! और जाएगा। अशांत होगा, और कहेगा कि शांति चाहिए मुझे। मन ही जटिल होता चला जाता है, आखिर में सिर्फ एक पागलपन के
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