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अपरिग्रही चित्त
गुरु रोज कहता गया, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं । वर्ष बीतने को पूरा हो गया। वह रोज खोजकर लाता रहा। कभी कहता कि झींगुर की आवाज, कभी कहता कि वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हवा की आवाज। कभी कहता कि वृक्षों से गिरते हुए पत्तों की आवाज। कभी कहता कि वर्षा में पानी की आवाज छप्पर पर। बहुत आवाजें लाया, लेकिन सब आवाजें गुरु इनकार करता गया। कहा कि नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं ।
फिर उसने आना बंद कर दिया। फिर बहुत दिन गए वापस लौटा। घंटा बजाया। पैरों में फिर फूल रखे। हाथ जोड़कर चुपचाप पास बैठ गया। गुरु ने कहा, लाए कोई उत्तर? आवाज खोजी कोई? उसने सिर्फ आंखें उठाकर गुरु की तरफ देखा - मौन, चुप । कहा, ठीक है। यही है आवाज – मौन, चुप । गुरु ने कहा, यही है आवाज । । तुझे पता चल गया, एक हाथ की आवाज कैसी होती है। अब तुझे और भी कुछ आगे खोज करना है ?
उसने कहा, लेकिन अब आगे खोज करने को कुछ भी न बचा। एक-एक आवाज को, खोज को, आप इनकार करते गए, इनकार करते गए, इनकार करते गए। सब आवाजें गिरती गईं। फिर सिवाय मौन के कुछ भी न बचा। पिछले महीनेभर से मैं बिलकुल मौन ही बैठा हूं। कोई आवाज ही नहीं सूझती; कोई शब्द ही नहीं आता; मौन ही मौन ! और अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। एक हाथ की आवाज जान पाया, नहीं जान पाया, मुझे पता नहीं। लेकिन इस मौन में मैंने जो देखा, जो जाना, शायद लोग उसी को परमात्मा कहते हैं। एक-एक चीज को इनकार करते चले जाना पड़ेगा। किसी से भी शुरू करें। शरीर से शुरू करें, तो जानना पड़ेगा कि शरीर नहीं है। भीतर जाएं, श्वास मिलेगी। जानना पड़ेगा, श्वास भी वह नहीं है। और भीतर जाएं, विचार मिलेंगे। जानना पड़ेगा, विचार भी वह नहीं है । और भीतर जाएं, वृत्तियां मिलेंगी। जानना पड़ेगा, वृत्तियां भी वह नहीं है। और उतरते जाएं, और उतरते जाएं। भाव मिलेंगे, जानें कि भाव भी वह नहीं है । उतरते जाएं गहरे - गहरे कुएं में !
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एक घड़ी ऐसी आ जाएगी कि इनकार करने को कुछ बचेगा, सन्नाटा और शून्य रह जाएगा। आ गई अंतर - गुफा, जहां अब यह भी कहने को नहीं बचा कि यह भी नहीं है। वहीं, उसी क्षण, उसी क्षण वह विस्फोट हो जाता है, जिसमें प्रभु का अनुभव होता है। बस, वह अनुभव एक क्षण को हो जाए, फिर निरंतर श्वास-श्वास, रोएं-रोएं, उठते-बैठते, सोते-जागते वह गूंजने लगता है। तब है स्मरण निरंतर ।
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और कृष्ण कहते हैं, ऐसे निरंतर स्मरण को उपलब्ध व्यक्ति ही मुझमें प्रतिष्ठित होता है, प्रभु में प्रतिष्ठित होता है। या उलटा कहें तो भी ठीक कि ऐसे व्यक्ति में, ऐसे निराकार, शून्य हो गए व्यक्ति में, ऐसे सतत सुरति से भर गए व्यक्ति में प्रभु प्रतिष्ठित हो जाता है।
प्रश्नः भगवान श्री पिछले दो श्लोकों में एक छोटी-सी पर विशेष बात रह गई है। उसमें कहा गया है ध्यान के साधक के लिए - विशेष आसन, शुद्ध भूमि, सीधा शरीर, और नासिकाग्र दृष्टि और ब्रह्मचर्य व्रत। उसके बाद कहा गया है, भयरहित और अच्छी प्रकार शांत अंतःकरण वाला । भयरहित का साधक के लिए क्या अर्थ होगा, कृपया इसे स्पष्ट करें।
यरहित और अच्छी प्रकार शांत चित्त वाला! महत्वपूर्ण है यह, काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि भय जिसे है, वह परमात्मा में प्रवेश न कर पाएगा। क्यों ? तो भय को थोड़ा समझ लेना पड़ेगा। भय है क्या ? वस्तुतः भय का मूल आधार क्या है? भयभीत क्यों हैं हम ? क्या है मूल कारण जिससे सारे भय का जन्म होता है ?
बीमारी का भय है । दिवालिया हो जाने का भय है। इज्जत मिट जाने का भय है । हजार-हजार भय हैं। लेकिन भय तो गहरे में एक ही है, वह मृत्यु का भय है। बीमारी भी भयभीत करती है, क्योंकि | बीमारी में मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू हो जाता है। गरीबी भयभीत करती है, क्योंकि गरीबी में भी मृत्यु का आंशिक दर्शन शुरू जाता है । अप्रतिष्ठा भयभीत करती है, क्योंकि अप्रतिष्ठा में भी मृत्यु का आंशिक अंश दिखाई पड़ने लगता है।
जहां-जहां भय है, वहां-वहां मृत्यु का कोई अंश दिखाई पड़ता है। प्रत्यक्ष न भी दिखाई पड़े, थोड़ा खोज करेंगे, तो दिखाई पड़ | जाएगा कि मैं भयभीत क्यों हूं। कहीं न कहीं कुछ मुझमें मरता है, तो मैं भयभीत होता हूं। चाहे मेरा धन छूटता हो, तो धन के कारण जो सुरक्षा थी भविष्य में कि कल भी भोजन मिलेगा, मकान मिलेगा, मर नहीं जाऊंगा। धन छिनता है, तो कल खतरा खड़ा हो | जाता है कि कल अगर भोजन न मिला तो ? प्रतिष्ठा है; धन न हो पास में, तो भी आशा कर सकता हूं कि कल कोई साथ देगा, कल