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________________ मुखौटों से मुक्ति नहीं होता, हमारी पूरी जिंदगी रिहर्सल है। पति घर लौटता है, तो तैयार करके लौटता है कि पत्नी क्या पूछेगी और वह क्या जवाब देगा। पत्नी भी तैयार रखती है कि पति क्या जवाब देगा और किस तरह से उसके जवाबों को गड़बड़ करेगी। सब तैयार है। और रोज यह हो रहा है, और रोज यह होगा । जिंदगी में भी रिहर्सल! पहले से तैयार करना पड़ता है कि मैं क्या जवाब दूंगा। क्या पूछा जाएगा, फिर मैं क्या कहूंगा। फिर क्या बचाव निकालूंगा। देर तो हो गई है रात घर लौटने में। अब क्या - क्या मुसीबत आने वाली है, वह सब जाहिर है । वह सब तैयार है। भीतर हमारे पास कोई ऐसी चेतना नहीं है क्या, जो स्पांटेनियस, सहज हो सके ! जब सवाल उठे, तब जवाब दे सके ! और जब मुसीबत आए, तब हमारे भीतर से उत्तर आ सके ! और जब घटना घटे, तब हमारे भीतर से कर्म पैदा हो सके ! और जब जैसी जरूरत हो, हमारे प्राण वैसा कर सकें ! लेकिन हमें भरोसा नहीं है कि भीतर कोई है। हमें तैयारी करनी पड़ती है; चित्त में ही तैयारी करनी पड़ती है। कृष्ण कहते हैं, युक्त आत्मा, थिर हो गई जिसकी चेतना, जिसकी लौ चेतना की ठहर गई, वही केवल मुझे उपलब्ध हो पाता है । जो एक हो गया भीतर, जो यूनि साइकिक हो गया, मल्टी-साइकिक नहीं रहा; बहुचित्त न रहे, एक चेतना का जन्म हो गया; एक विराट चेतना ने उसे सब ओर से घेर लिया - वैसा व्यक्ति मेरे पास आ पाता है। और वैसे व्यक्ति को कृष्ण ने कहा है ज्ञानी । और वैसे व्यक्ति को कहा है कि ऐसा व्यक्तित्व पाने में अनेक-अनेक जन्म लग जाते हैं अर्जुन ! मालूम कितने जन्मों की यात्रा के बाद आदमी को यह अनुभव उपलब्ध हो पाता है कि मैं कब तक धोखा देता रहूंगा? मैं आथेंटिक, प्रामाणिक कब बनूंगा? मैं वही कब घोषणा कर दूंगा | जगत के सामने, जो मैं हूं? कब तक मैं छिपाऊंगा? कब तक मैं प्रवंचना दूंगा? और मैं किसको धोखा दे रहा हूं? सब धोखा अपने को ही धोखा देना है; सब वंचनाएं आत्मवंचनाएं हैं। लेकिन अनंत जन्मों के बाद भी याद आ जाए, तो जल्दी याद आ गई। अनंत जन्मों के बाद भी आ जाए, तो जल्दी आ गई याद । क्योंकि अनंत जन्म हम सबके हो चुके हैं। वह याद अब तक आई नहीं है। कहीं से कोई पीका नहीं फूटता भीतर से, कि वह हमें कहे कि उतार फेंको इस सब धोखेधड़ी को, जिसे तुमने जिंदगी बना रखा है । उतार दो इन नकली चेहरों को; अलग कर दो इनको, जो तुमने पहन रखे हैं। हटा दो यह सब जाल अपने आस-पास से, जो बेईमानी का है। बेईमानी का, जिसमें कि हम दूसरों को धोखा दिए जा रहे हैं वह होने का, हम नहीं हैं। दूसरे भी हमें दिए चले जा रहे हैं। धार्मिक आदमी वह है, जो एक छलांग लगाकर इस सब उपद्रव के बाहर हो जाता है और जिंदगी जैसी है, उसकी सहज स्वीकृति की घोषणा कर देता है। उस स्वीकृति साथ ही भीतर आत्मा युक्त हो जाती है। जिस व्यक्ति ने भी अपने होने को अंगीकार कर लिया, जैसा है स्वीकार कर लिया; जैसा है, बुरा-भला, स्वीकार कर लिया। इसका यह मतलब नहीं है कि बुरा आदमी अपने को स्वीकार कर लेगा, तो बुरा ही रह जाएगा। यह बड़ी अदभुत घटना घटती है। जैसे ही कोई व्यक्ति, जैसा है, अपने को स्वीकार कर लेता है, तत्क्षण उसके जीवन में वह क्रांति घटित हो जाती है, जिसमें सब | बुराइयां जल जाती हैं। 413 बुराइयां बचती हैं चेहरों की आड़ में, नग्नता में कोई बुराई नहीं बच सकती। जब कोई आदमी प्रकट अपने को, सहज जैसा है, जाहिर कर देता है सब भय छोड़कर...। क्योंकि सब भय ही तो है कि हम चेहरे लगाए फिरते हैं। डर ही तो है कि कोई क्या कहेगा, तो हम लगाए फिरते हैं। संन्यासी मैं उसी को कहता हूं, जो इस बात की घोषणा कर दे जीवन के प्रति कि अब मैं धोखा नहीं दूंगा अपने चेहरे से; मास्क, कोई मुखौटा नहीं लगाऊंगा। जैसा हूं, हूं; उसकी खबर कर दूंगा। मैं जैसा हूं, वैसा होने की तैयारी करता हूं। ऐसा व्यक्ति एक दिन | युक्त आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। युक्त आत्मा पर्मात्मा के साथ एक हो जाती है। यह दूसरी बात इसमें समझने जैसी है। जो अपने साथ एक हुआ, वह सर्व के साथ एक हो जाता है। जिसने इस भीतर के एक के साथ एकता बांधी, उसकी बाहर की, विराट यह जो ऊर्जा का विस्तार है, इससे भी एकता सध जाती है। जो अपने भीतर टूटा है, वही परमात्मा से टूटा रहता है। इसलिए भक्त भगवान को जब जानता है, तो भक्त नहीं रहता, भगवान ही हो जाता है। कोई संधि नहीं बचती बीच में, जरा-सा कोई सेतु नहीं बचता । सब टूट जाता है। कोई फासला नहीं रह जाता । फासला है भी नहीं । हमने फासला बनाया है, इसलिए
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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