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________________ +गीता दर्शन भाग-3 - खरीदना होता है। जीवन की इकॉनामी है। एक ही चीज से आप सब | | खिलते हैं। ठीक कर्म जीवन का स्वभाव है। चीजें नहीं खरीद सकते। एक चीज छोड़नी पड़ती है, तो दूसरी चीज | गलत कर्म जीवन का स्वभाव नहीं है। इच्छाओं के कारण गलत खरीद सकते हैं। जीवन का अपना अर्थशास्त्र है। कर्म जीवन करने को मजबूर होता है। जो आदमी चोरी करता है, आपके खीसे में एक रुपया पड़ा हुआ है। रुपया बहुत चीजें | वह भी ऐसा अनुभव नहीं करता कि मैं चोर हूं। बड़े से बड़ा चोर खरीद सकता है। जब तक नहीं खरीदा है, तब तक रुपया बहुत | भी ऐसा ही अनुभव करता है कि मजबूरी में मैंने चोरी की है; मैं चोर चीजें खरीद सकता है। लेकिन जब खरीदने जाएंगे, तो एक ही चीज नहीं हूं। बड़े से बड़ा चोर भी ऐसा ही अनुभव करता है कि ऐसा खरीद सकता है। जब आप एक चीज खरीदेंगे, तो बाकी जो चीजें | दबाव था परिस्थिति का कि मुझे चोरी करनी पड़ी है, वैसे मैं चोर रुपया खरीद सकता था, उनका त्याग हो गया। अगर आपने एक नहीं हूं। बुरे से बुरा कर्म करने वाला भी ऐसा नहीं मानता कि मैं बुरा रुपए से टिकट खरीद ली और रात जाकर सिनेमा में बैठ गए, तो हूं। वह ऐसा ही मानता है, एक्सिडेंट है बुरा कर्म। आप एक रुपए से और जो खरीद सकते थे, उस सबका आपने आज तक पृथ्वी पर ऐसा एक भी आदमी नहीं हुआ, जिसने कहा त्याग कर दिया। आप भी त्याग करके वहां गए हैं। हो सकता है, | हो कि मैं बुरा आदमी हूं। वह इतना ही कहता है, आदमी तो मैं बच्चे को दवा की जरूरत हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो | अच्छा हूं, लेकिन दुर्भाग्य कि परिस्थितियों ने मुझे बुरा करने को सकता है, पत्नी के तन पर कपड़ा न हो, उसको पकड़े की जरूरत मजबूर कर दिया। हो, आपने उसका त्याग कर दिया। हो सकता है, आपका खुद का लेकिन परिस्थितियां! उसी परिस्थिति में बुद्ध भी पैदा हो जाते पेट भूखा हो, लेकिन आपने अपनी भूख का त्याग कर दिया। | हैं; उसी परिस्थिति में एक डाकू भी पैदा हो जाता है; उसी परिस्थिति जगत में जीवन की एक इकॉनामी है, अर्थशास्त्र है। यहां एक में एक हत्यारा भी पैदा हो जाता है। एक ही घर में भी तीन लोग तीन इच्छा पूरी करनी हो, तो दूसरी इच्छाएं छोड़नी पड़ती हैं। तो जो तरह के पैदा हो जाते हैं। बिलकुल एक-सी परिस्थिति भी एक-से आदमी संसार की इच्छाएं छोड़कर जंगल चला जाता है, पूछना आदमी पैदा नहीं कर पाती। जरूरी है. वह क्या पाने वहां जा रहा है? कहेगा. परमात्मा को पाने परिस्थिति भेद कम डालती है; इच्छाएं भेद ज्यादा डालती हैं। जा रहा हूं, आत्मा को पाने जा रहा हूं, आनंद को पाने जा रहा हूं। इच्छाएं इतनी मजबूत हों, तो हम सोचते हैं कि एक इच्छा पूरी लेकिन इच्छाओं को छोड़कर अगर किसी इच्छा को पाने ही जा रहे होती है, थोड़ा-सा बुरा भी करना हो, तो कर लो। इच्छा की गहरी हैं, तो आप संन्यासी नहीं हैं। पकड़ बुरा करने के लिए राजी करवा लेती है। बुरा काम भी कोई कृष्ण कहते हैं संन्यासी उसे, जो किसी इच्छा के लिए और आदमी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए करता है। बुरा इच्छाओं को नहीं छोड़ता, जो इच्छाओं को ही छोड़ देता है। इस काम भी किसी अच्छी इच्छा को पूरा करने के लिए अपने मन को फर्क को ठीक से समझ लें। किसी इच्छा के लिए छोड़ना, तो सभी | समझा लेता है कि इच्छा इतनी अच्छी है, साध्य इतना अच्छा है, से हो जाता है। नहीं, इच्छाओं को ही छोड़ देता है। | इसलिए अगर थोड़े गलत मार्ग भी पकड़े गए, तो बुरा नहीं है। और हम कहेंगे कि इच्छा छूटी कि कर्म छूट जाएगा। हम कहेंगे कि ऐसा नहीं है कि छोटे-छोटे साधारणजन ऐसा सोचते हैं, बड़े इच्छा अगर छूट जाए, तो फिर हम कर्म क्यों करेंगे? यह भी हमारा | बुद्धिमान कहे जाने वाले लोग भी ऐसा ही सोचते हैं। मार्क्स या इच्छा से भरा हुआ मन सवाल उठाता है। क्योंकि हमने बिना इच्छा | लेनिन जैसे लोग भी ऐसा ही सोचते हैं कि अगर अच्छे अंत के लिए के कभी कोई कर्म नहीं किया है। लेकिन कृष्ण गहरा जानते हैं। वे बुरा साधन उपयोग में लाया जाए, तो कोई हर्जा नहीं है; ठीक है। जानते हैं कि इच्छा छूट जाए, तो भी कर्म नहीं छूटेगा, सिर्फ गलत लेकिन हम जो करना चाहते हैं, वह तो अच्छा ही करना चाहते हैं। कर्म छूट जाएगा। यह दूसरा सूत्र इस सूत्र में समझ लेने जैसा है। | बुरे से बुरे आदमी की भी तर्क-शैली यही है कि जो मैं करना इसलिए वे कहते हैं, जो करने योग्य है, वही कर्म। जैसे ही इच्छा चाहता हूं, वह तो अच्छा ही है। अगर मैं एक मकान बना लेना छटी कि गलत कर्म छट जाएगा, ठीक कर्म नहीं छटेगा। क्योंकि छाया में दोपहर विश्राम करना चाहता है, तो ठीक कर्म जीवन से वैसे ही निकलता है, जैसे झरने सागर की तरफ बुरा क्या है। सहज, स्वाभाविक, मानवीय है। फिर इसके लिए बहते हैं। ठीक कर्म जीवन में वैसे ही खिलता है, जैसे वृक्षों में फूल थोड़ी कालाबाजारी करनी पड़ती है, थोड़ी चोरी करनी पड़ती है,
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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