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हृदय की अंतर- गुफा
वचन चले जाएं, हजार मित्र खो जाएं। बुरे भले की बात नहीं है, अपना-अपना द्वंद्व है।
सुना है मैंने, राजस्थान में एक लोक-कथा है। एक गांव में गांव राजपूत सरदार ने गांवभर में खबर रख छोड़ी है कि कोई मूंछ बड़ी न करे। खुद मूंछ बड़ी कर रखी है। और अपने दरवाजे पर तख्त डालकर बैठा रहता है। और गांव में खबर कर रखी है कि कोई मूंछ ऊंची करके सामने से न निकले। अगर मूंछ भी हो, तो नीची कर ले।
गांव में एक नया वणिक आया है, नया वैश्य आया है। उसने नई दुकान खोली है। उसको भी मूंछ रखने का शौक है। पहली बार राजपूत के सामने से निकल रहा है। राजपूत ने कहा, वणिक - पुत्र, मूंछ नीची कर लो ! शायद तुम्हें पता नहीं, मेरे दरवाजे के सामने मूंछ ऊंची नहीं जा सकती। वणिक-पुत्र ने कहा, मूंछ तो ऊंची ही जाएगी! तलवारें खिंच गईं। राजपूत दो तलवारें लेकर बाहर आ गया। राजपूत था इसलिए दो लाया। एक वणिक-पुत्र के लिए, एक अपने लिए।
वणिक-पुत्र ने तलवार देखी। कभी पकड़ी तो न थी। सिर्फ मूंछ ऊंची रखने का शौक था । सोचा, यह झंझट हो गई। वणिक - पुत्र ने कहा, ठीक है। खुशी से इस युद्ध में मैं उतरूंगा। लेकिन एक प्रार्थना कि जरा मैं घर होकर लौट आऊं । उस राजपूत ने कहा, किसलिए? वणिक - पुत्र ने कहा, आपको भी ठीक जंचे, तो आप भी यही करें। हो सकता है, मैं मर जाऊं, तो मेरे पीछे मेरी पत्नी और बच्चे दुखी न हों, उनकी मैं गर्दन काटकर आता हूं। अगर आपको भी जंचती हो बात, हो सकता है, आप मर जाएं, तो आप अपनी पत्नी और बच्चों की गर्दन काट दें; फिर हम लड़ें मौज से । राजपूत ने कहा, बात ठीक है।
वणिक-पुत्र अपने घर गया। राजपूत ने भीतर जाकर गर्दनें साफ कर दीं। बाहर आकर बैठ गया। थोड़ी देर में वणिक-पुत्र मूंछ नीची करके लौट आया। उसने कहा, मैंने सोचा नाहक झंझट क्यों करनी ! जरा-सी मूंछ को नीची करने के लिए उपद्रव क्यों करना ! यह तुम्हारी तलवार सम्हालो ! उस राजपूत ने कहा, तुम आदमी कैसे हो? मैंने अपनी पत्नी और बच्चे साफ कर दिए ! उस
-पुत्र ने कहा कि फिर तुम जानते ही नहीं कि वणिक का अपना गणित होता है | हमारा अपना हिसाब है !
प्रत्येक व्यक्ति का टाइप है, और प्रत्येक व्यक्ति के रुझान हैं, और प्रत्येक व्यक्ति की संवेदनशीलताएं हैं, और प्रत्येक व्यक्ति
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के लिए उसके जीवन का महत्वपूर्ण द्वंद्व है । और हर एक को अपना द्वंद्व देख लेना चाहिए कि मेरा द्वंद्व क्या है? प्रेम और घृणा | मेरा द्वंद्व है ? मित्रता - शत्रुता मेरा द्वंद्व है ? धन-निर्धनता मेरा द्वंद्व है ? यश - अपयश मेरा द्वंद्व है? सुख-दुख, ज्ञान- अज्ञान, शांति - अशांति, मेरा द्वंद्व क्या है ?
और जो भी आपका द्वंद्व हो, कृष्ण कहते हैं, उस द्वंद्व में समबुद्धि को उपलब्ध होना मार्ग है।
ध्यान रहे, दूसरे के द्वंद्व में आप समबुद्धि को बड़ी आसानी से उपलब्ध हो सकते हैं। अपने ही द्वंद्व का सवाल है। दूसरे के द्वंद्व में आपको समबुद्धि लाने में जरा भी कठिनाई नहीं पड़ेगी। आप कहेंगे कि बिलकुल ठीक है । अगर आपकी जिंदगी में कभी यश का | खयाल नहीं पकड़ा, अगर आपको कभी राजनीति का प्रेत सवार नहीं हुआ, यश का, तो आप कहेंगे कि ठीक है, इलेक्शन जीते कि हारे। इसमें तो हम सम ही रहते हैं, इसमें कोई हमें कठिनाई नहीं है। आपको कभी वह भूत नहीं पकड़ा हो, तो आप बिलकुल समबुद्धि बता सकते हैं। लेकिन असली सवाल यह नहीं है कि आप बताएं; असली सवाल वह है कि जिसे भूत पकड़ा हो। आपका अपना भूत | क्या है, आपका अपना प्रेत क्या है, जो आपका पीछा कर रहा है? उसकी ठीक पहचान जरूरी है।
इसलिए कृष्ण अलग-अलग सूत्र में अलग-अलग प्रेतों की चर्चा कर रहे हैं। वे यहां कहते हैं कि मित्र और शत्रु के बीच
समभाव ।
बड़ी कठिनाई है। एक बार धन और निर्धनता के बीच समभाव आसान है, क्योंकि धन निर्जीव वस्तु है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेंगे।
एक बार यश और अपयश के बीच समभाव आसान है, क्योंकि यश और अपयश आपकी निजी बात है। लेकिन मित्र और शत्रु के | बीच समभाव रखना बहुत कठिन है। क्योंकि एक तो निजी बात नहीं रही; कोई और भी सम्मिलित हो गया; मित्र और शत्रु भी सम्मिलित हो गए। आप अकेले न रहे, दूसरा भी मौजूद हो गया। | और इसलिए भी महत्वपूर्ण और कठिन है कि धन जैसी निर्जीव वस्तु नहीं है सामने। आप सोने को और मिट्टी को समान समझ लें एक बार, तो बहुत कठिनाई नहीं है, क्योंकि दोनों जड़ हैं। लेकिन मित्र और शत्रु दोनों जीवंत हैं, चेतन हैं, उतने ही जितने आप। • आपके ही तल पर खड़े हुए लोग हैं; आप जैसे ही लोग हैं। | कठिनाई, जटिलता ज्यादा है।