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________________ गीता दर्शन भाग - 3 > यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया । यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। २० ।। और हे अर्जुन, जिस अवस्था में योग के अभ्यास से निरुद्ध हुआ चित्त उपराम हो जाता है और जिस अवस्था में परमेश्वर के ध्यान से शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धि द्वारा परमात्मा को साक्षात करता हुआ सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही संतुष्ट होता है। यो 'ग से उपराम हुआ चित्त ! इस सूत्र में, कैसे योग से चित्त उपराम हो जाता है और जब चित्त उपराम को उपलब्ध होता है, तो प्रभु में कैसी प्रतिष्ठा होती है, उसकी बात कही गई है। चित्त के संबंध में दो-तीन बातें स्मरणीय हैं। एक, चित्त तब तक उपराम नहीं होता, जब तक चित्त का विषयों की ओर दौड़ना सुखद है, ऐसी भ्रांति हमें बनी रहती है। तब तक चित्त उपराम, तब तक चित्त विश्रांति को नहीं पहुंच सकता है। जब तक हमें यह खयाल बना हुआ है कि विषयों की ओर दौड़ता हुआ चित्त सुखद प्रतीतियों में ले जाएगा, तब तक स्वाभाविक है कि चित्त दौड़ता रहे। चित्त के दौड़ने का नियम है। जहां सुख मालूम होता है, चित्त वहां दौड़ता है। जहां दुख मालूम होता है, चित्त वहां नहीं दौड़ता है। जहां भी सुख मालूम हो, चाहे भ्रांत ही सही, चित्त वहां दौड़ता है। जैसे पानी गड्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा चित्त सुख की तरफ दौड़ता है। दुख के पहाड़ों पर चित्त नहीं चढ़ता, सुख की झीलों की तरफ भागता है। चाहे वे झील कितनी ही मृग मरीचिकाएं क्यों न हों; चाहे पहुंचकर झील पर पता चले कि वहां कुछ भी नहीं है— न झील है, न गड्ढा है, न पानी है। लेकिन जहां भी चित्त को दिखाई पड़ता है सुख, चित्त वहीं दौड़ता है । चित्त की दौड़ सुखोन्मुख है। और दौड़ जब तक है, तब तक चित्त विश्राम को उपलब्ध नहीं होता, तब तक तो वह श्रम में ही लगा रहता है। एक सुख से जैसे ही मुक्त हो पाता है— मुक्त होने का अर्थ ? अर्थ यह कि एक सुख को जान लेता है। जैसे ही पता चलता है कि यह सुख सुख सिद्ध नहीं हुआ, मन तत्काल दूसरे सुखों की ओर दौड़ना शुरू कर देता है। दौड़ जारी रहती है। मन अगर जी सकता है, तो दौड़ने में ही सकता है। अगर गहरी बात कहनी हो, तो कह सकते हैं कि दौड़ का नाम ही मन है। चेतना की दौड़ती हुई स्थिति का नाम मन है और चेतना की उपराम स्थिति का नाम आत्मा है। करीब-करीब चित्त की स्थिति वैसी है, जैसे साइकिल आप चलाते हैं रास्ते पर । जब तक पैडल चलाते हैं, साइकिल चलती है; पैडल बंद कर लेते हैं, थोड़ी ही देर में साइकिल रुक जाती है। साइकिल को चलाना जारी रखना हो, तो पैरों का चलते रहना जरूरी है । चित्त का चलना जारी रखना हो, तो सुखों की खोज जारी रखना जरूरी है। अगर एक क्षण को भी ऐसा लगा कि सुख कहीं भी नहीं है, तो चित्त विश्राम में आना शुरू हो जाता है। इसलिए बुद्ध ने चित्त के विश्राम और चित्त के उपराम अवस्था | के लिए चार आर्य सत्य कहे हैं। वह मैं आपको कहूं। वे योग की बहुत बुनियादी साधना में सहयोगी हैं। बुद्ध ने कहा है, जीवन दुख है, इसकी प्रतीति पहला आर्य- सत्य । जो भी हम चाहते हैं, सुख दिखाई पड़ता है, निकट पहुंचते ही दुख सिद्ध होता है। जो भी हम खोजते हैं, दूर से सुहावना, प्रीतिकर लगता है; निकट आते ही कुरूप, अप्रीतिकर हो जाता है। जीवन दुख है, ऐसा साक्षात्कार न हो, तो चित्त उपराम में नहीं जा सकेगा । ऐसा साक्षात्कार हुआ, कि चित्त की दौड़ अपने से ही खो जाती है। उसको पैडल मिलने बंद हो जाते हैं। फिर आपके पैर उसे. गति नहीं देते, ठहर जाते हैं। और चित्त चल नहीं सकता आपके बिना सहयोग के | आपके बिना कोआपरेशन के चित्त दौड़ नहीं सकता। इसलिए आप ऐसा कभी मत कहना कि मैं क्या करूं! यह चित्त भटका रहा है। ऐसा कभी भूलकर मत कहना। क्योंकि आपके सहयोग के बिना चित्त भटका नहीं सकता। आपका सहयोग अनिवार्य है। आपका सहयोग टूटा कि चित्त की गति टूटी। हां, थोड़ी देर मोमेंटम चल सकता है। साइकिल के पैडल बंद कर दिए, तो भी दस-बीस गज साइकिल चल सकती है। लेकिन | बंद करते ही पैर साइकिल के प्राण छूटने शुरू हो जाएंगे। पुरानी गति से दस-बीस कदम चल सकती है : लेकिन वह चलना सिर्फ मरना ही होगा। साइकिल की गति मरती चली जाएगी। 150 जीवन दुख है, इसकी प्रतीति । पूछेंगे हम कि कैसे इसकी प्रतीति हो ? बड़ा गलत सवाल पूछते हैं। इसकी प्रतीति प्रतिपल हो रही है। लेकिन उस प्रतीति से आप कभी कोई निर्णय नहीं लेते। प्रतीति की कोई कमी नहीं है। पूरा जीवन इसका ही अनुभव है कि जीवन दुख है, लेकिन निष्कर्ष नहीं लेते। और निष्कर्ष न लेने की तरकीब यह कि अगर एक सुख दुख सिद्ध होता है, तो आप कभी ऐसा नहीं
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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