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________________ 4 गीता दर्शन भाग-3 हो, उसे पाने की बात करते चले जाना चाहिए। सांसारिक मन नहीं | | वाला मन संदेह करता ही चला जाएगा। ऐसा नहीं है कि एक संदेह समझ पाएगा यह, वह कहेगा कि पाने की बात छोड़ दूं! अच्छा | का निरसन हो जाए, तो निरसन हो जाएगा। एक संदेह का निरसन छोड़े देते हैं। लेकिन पाना क्या सच में छोड़ने से हो जाएगा? उसका | | होते ही दूसरा संदेह खड़ा हो जाएगा। दूसरे का निरसन होते ही तीसरा भीतरी, भीतरी जो सांसारिक मन की बनावट है, जो इनर स्ट्रक्चर | संदेह खड़ा हो जाएगा। फिर कृष्ण क्यों संदेहों को तृप्त करने की है, जो मेकेनिज्म है, वह यह है। कोशिश कर रहे हैं? क्या इस आशा में कि संदेह तृप्त हो जाएंगे? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम ध्यान बहुत करते नहीं, सिर्फ इस आशा में कृष्ण अर्जुन के संदेह दूर करने की हैं, शांति नहीं मिलती। तो मैं उनसे कहता हूं, तुम शांति की फिक्र कोशिश करेंगे कि धीरे-धीरे हर संदेह के निरसन के बाद भी जब छोड़ दो। तुम शांति चाहो ही मत। फिर तुम ध्यान करो। और शांति नया संदेह खड़ा होगा, तो अर्जुन जाग जाएगा, और समझ पाएगा मिल जाएगी, बट दैट विल बी ए कांसिक्वेंस। वह परिणाम होगा कि संदेहों का कोई अंत नहीं है। सहज। तुम मत मांगो। डोंट मेक इट ए रिजल्ट, इट बिल बी ए खयाल रखिए, संदेह के निरसन से संदेह का निरसन नहीं होता। कांसिक्वेंस। तुम फल मत बनाओ उसे, वह परिणाम होगा। वह हो लेकिन बार-बार संदेह के निरसन करने से आपको यह स्मृति आ ही जाएगा; उसकी तुम फिक्र न करो। वे कहते हैं, तो फिर हम शांति सकती है कि कितने संदेह तो निरसन हो गए, मेरा संदेह तो वैसा का खयाल छोड़ दें, फिर शांति मिल जाएगी? का वैसा ही खड़ा हो जाता है! यह तो रावण का सिर है। काटते हैं, वे शांति का खयाल भी छोड़ने को राजी हैं, एक ही शर्त पर, कि | फिर लग जाता है। काटते हैं, फिर लग जाता है! काटते हैं, फिर शांत मिल जाएगी? लग जाता है! कृष्ण अथक काटते चले जाएंगे। अब शांति की तलाश अशांति है। इसलिए शांति का तलाशी | | पूरी गीता संदेह के सिर काटने की व्यवस्था है। एक-एक संदेह कभी शांति नहीं पा सकता। तलाश अशांति है। और शांति की | | काटेंगे, जानते हुए कि संदेह से संदेह होता है। संदेह किसी भी तलाश महा अशांति है। भरोसे, आश्वासन से कटता नहीं है। लेकिन अर्जुन थक जाए ऐसा है। दिस इज़ दि फैक्टिसिटी, यह ऐसा तथ्य है, ऐसा | | कट-कटकर, और हर बार खड़ा हो-होकर गिरे, और फिर खड़ा अस्तित्व है, इसमें कोई उपाय नहीं है। इस अस्तित्व की शर्तों को | हो जाए। संदेह मिटे, और फिर बन जाए; जवाब आए, और फिर मानें तो ठीक, न मानें तो दुख भोगना पड़ता है। इस अस्तित्व की प्रश्न बन जाए। ऐसा करते-करते शायद अर्जुन को यह खयाल आ शर्त ही यह है। उस पार जाने की शर्त यह है कि यह किनारा छोड़ो। जाए कि नहीं, संदेह व्यर्थ है; और आश्वासन की तलाश भी बेकार और यह भी शर्त है कि उस किनारे की बात मत करो। है। किसी क्षण यह खयाल आ जाए, तो तट छूट सकता है। अर्जुन कहता है, मुझे निःसंदिग्ध कर दें। हे महाबाहो, तुम्हारी मगर अर्जुन की प्यास बिलकुल मानवीय है, टू ह्यूमन, बहुत बांहें बड़ी विशाल हैं। तुम दूर के तट छू लेते हो। तुम असीम को मानवीय है। इसलिए कृष्ण नाराज न हो जाएंगे। जानते हैं कि मनुष्य भी पा लेते हो। तुम मुझे कह दो, भरोसा दिला दो। जैसा है, तट से बंधा, उसकी भी अपनी कठिनाइयां हैं। लेकिन सच ही क्या कृष्ण का भरोसा अर्जुन के लिए भरोसा बन किसी का सपना हम तोड़ दें। सुखद सपना कोई देखता हो; सकता है? क्या कृष्ण यह कह दें कि हां, मिलेगा दूसरा किनारा, | माना कि सपना था, पर सुखद था; तोड़ दें। तो वह आदमी पूछे कि तो भी क्या संदेह करने वाला मन चुप हो जाएगा? क्या वह मन | सपना तो आपने मेरा तोड़ दिया, लेकिन अब? अब मुझे कहां! नया संदेह नहीं उठाएगा? कि अगर कृष्ण के कहने से नहीं मिला, | अब मैं क्या देखू? अभी जो देख रहा था, सुखद था। आप कहते तो? फिर कृष्ण जो कहते हैं, वह मान ही लिया जाए, जरूरी क्या | हैं, सपना था, इसलिए तुड़वा दिया। अब मैं क्या देखू ? है? फिर हम कृष्ण की मानकर चले भी गए और कल अगर खो ___ कुछ देखने की उसकी प्यास स्वाभाविक है। मगर उस प्यास में गए, तो किससे शिकायत करेंगे? कहीं बादल की तरह बिखर गए, | बुनियादी गलती है। आदमी के होने में ही बुनियादी गलती है। प्यास तो फिर किससे कहेंगे? और अगर गति बिगड़ गई, तो कौन होगा| | मानवीय है, लेकिन मानवीय होने में ही कुछ गलती है। वह गलती जिम्मेवार ? कृष्ण होंगे जिम्मेवार? यह है कि सपना देखने वाला कहता है कि मैं सपना तभी तोडूंगा, अजीब है आदमी का मन। असल बात यह है कि संदेह करने जब मुझे कोई और सुंदर देखने की चीज विकल्प में मिल जाए। 276
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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