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< गीता दर्शन भाग-3 -
सोने की जंजीर आभूषण मालूम पड़ने लगती है। इसलिए बुराई से | खिलाफ एक संघर्ष होती है, एक सतत संघर्ष। असाधु भीतर मौजूद तो कोई आदमी उठने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन भलाई से तो रहता है। वह तमस भीतर मौजूद रहता है। सत्व की लड़ाई चलती उठने की तैयारी भी नहीं दिखलाता।
रहती है। तो कृष्ण कहते हैं, तू सत्व की बातों में मत पड़ अर्जुन। तू यह साधु का मतलब है, जिसने क्रोध को भीतर दबाया है; अक्रोधी साधुता की बातें मत कर। क्योंकि मुझे पाए बिना कोई भी साधु नहीं | | हुआ। जिसने चोरी को भीतर दबाया; अचोर हुआ। जिसने परिग्रह है। उसके पहले सिर्फ धोखा है मन का। कुछ लोग बुरे ढंग से अपने को दबाकर छोड़ा; अपरिग्रही हुआ। जिसने अहंकार को दबाया, को धोखा देते हैं, कुछ लोग भले ढंग से अपने को धोखा देते हैं। और विनम्र हुआ। लेकिन वे सब भीतर बीमारियां कतारबद्ध मौजूद कुछ लोग दूसरों को नुकसान करके अपने को धोखा देते हैं, कुछ हैं. और प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब आप विश्राम करिएगा। कब। लोग दूसरों को लाभ पहुंचाकर अपने को धोखा देते हैं। लेकिन कब थोड़ा-सा अवकाश लेंगे अपने संघर्ष से! धोखा तब तक जारी रहता है, जब तक कोई प्रकृति के गुणों के ऊपर । इसलिए साधु रात सोने तक में डरते हैं, क्योंकि सोने में विश्राम न उठ जाए।
| हो जाता है। और जिस-जिस को दिन में दबाया है, वह सब सपना नहीं; चित्त ऐसी अवस्था में चाहिए जहां न बुरा खींचता हो, न बनकर छाती पर घूमने लगता है। इसलिए साधु जरा भी विश्राम लेने भला खींचता हो। न आकर्षित करती हों बीमारियां-क्रोध, काम, | में डरते हैं कि कहीं भी जरा विश्राम लिया और वह संघर्ष अगर लोभ; न आकर्षित करते हों तथाकथित फूल–सेवा, सदभाव, | | थोड़ा भी शिथिल हुआ, तो मालूम है उन्हें भलीभांति कि दुश्मन मंगल, कल्याण। नहीं; कोई भी आकर्षित न करता हो। मौजूद है।
और जब दोनों में से कोई भी आकर्षित नहीं करता, तो चित्त ठहर सब साधु अपने भीतर असाधु को दबाए हुए हैं। और जब तक जाता है। नहीं तो दौड़ता रहता है। कभी बुरे के लिए, कभी भले के | असाधु मौजूद है, साधु सिर्फ सतह है। भीतर तो सब उबल रहा है लिए; कभी साधु होने के लिए, कभी असाधु होने के लिए; दौड़ लावे की तरह। ज्वालामुखी की तरह भीतर आग लगी है। अभी जारी रहती है। चित्त तो रुकता ही तब है, जब दोनों से मुक्त हो जाता | | धुआं दिखाई नहीं पड़ रहा; अभी ज्वालामुखी फूटा नहीं; लेकिन है। और जब चित्त दोनों से मुक्त होता है, तब एक नए आयाम में | इससे ज्वालामुखी नहीं है, ऐसा कहने की कोई जरूरत नहीं। यात्रा शुरू होती है, अंतर्यात्रा या ऊर्ध्वयात्रा शुरू होती है। तब ज्वालामुखी भीतर तैयारी कर रहा है। व्यक्ति प्रकृति के ऊपर उठकर परमात्मा को अनुभव कर पाता है। संत हम उसे कहते हैं, जो असाधुता से लड़कर साधु नहीं है।
इसलिए हमने इस देश में साधु को वह मूल्य नहीं दिया, जो संत संत हम उसे कहते हैं, जिसने परमात्मा को देखा, और परमात्मा को को दिया। साधु और असाधु ठीक है; एक ही दुनिया के रहने वाले | देखने से साधु हो गया। कोई संघर्ष नहीं है। किसी को दबाया नहीं, लोग हैं। एक के हाथ में लोहे की जंजीरें हैं। एक के हाथ में सोने | किसी से लड़ा नहीं। इसलिए संत विश्राम से नहीं डरेगा। डरने का की जंजीरें हैं। एक बुरे कामों में उलझा है, लेकिन व्यस्त है उसी | कोई सवाल ही नहीं है। उसे विपरीत की संभावना ही नहीं है। उसके तरह, जैसा दूसरा भले कामों में उलझा है और व्यस्त है, भीतर से, परमात्मा को देखने से, असाधुता गिर गई। आक्युपाइड है। लेकिन दोनों की नजरें जमीन पर लगी हैं। दोनों में संत वह है, जिसकी असाधुता गिर गई; और साधुता पनपी, से कोई आकाश की तरफ नहीं देख रहा है। .
प्रकट हुई। और साधु वह है, जिसने असाधुता को दबाया, और हमने उसे संत कहा है, जो न भले में उलझा है, न बरे में। जो साधता को कल्टिवेट किया. साधता का अभ्यास किया: साधता उलझा ही नहीं है; जिसने जमीन से नजर ऊपर उठा ली; जिसने को थोपा, आरोपित किया। साधु की तरह अपने को नियोजित आकाश को देखा है; जिसने परमात्मा को पहचाना है। | किया, संयमित किया; अपने को बनाया, तैयार किया। साधु की
इसका यह मतलब नहीं है कि परमात्मा को पहचानने के बाद | तरह जिसने अपने ऊपर मेहनत की। इसमें आदमी की मेहनत है। वह साधु नहीं होगा। वह साधु होगा। वही साधु होगा। लेकिन | आदमी की मेहनत ज्यादा दूरगामी नहीं हो सकती। आदमी हमेशा बुनियादी अंतर पड़ जाएंगे।
| प्रकृति से हार जाएगा। आदमी प्रकृति से बहुत कम है। जिसने परमात्मा को नहीं पहचाना, उसकी साधुता असाधुता के मैंने आपसे कहा, अब मैं एक और छोटा वर्तुल आपसे बनाने
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