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________________ गीता दर्शन भाग-3 दोनों खो जाएं और वह आदमी एक बादल की तरह हवाओं के दोनों तो हम उस पर पैर रख लें। कि जब भरोसा है पूरा, तब पहले से तरफ के झोंकों में छितर-बितर होकर नष्ट हो जाए। कहीं ऐसा तो उठाते हैं। न होगा? इसलिए अर्जुन कहता है, हे कृष्ण, मेरे संशय को पूर्ण रूप से संसार को छोड़ते समय मन में यह सवाल उठता ही है कि कहीं छेद डालें। मुझे पक्का करवा दें आश्वासन, कि मिल ही जाएगा ऐसा तो न हो कि मैं संसार की तरफ वैराग्य निर्मित कर लूं, तो दूसरा तट, ताकि मैं निःसंशय इस तट को छोड़ सकूँ। छेद कर दें, संसार भी छूट जाए, और परमात्मा को पा न सकू, क्योंकि मन बड़ा | छेद डालें मेरे इस संदेह को। जरा भी बाकी न रहे। यह अगर जरा चंचल है। तो संसार भी छूट जाए और परमात्मा भी न मिले; तो मैं | | भी बाकी रहा, तो तट छोड़ने में मुझे कठिनाई होगी। एकाध जंजीर घर का न घाट का; धोबी के गधे जैसा न हो जाऊं! को मैं तट से बांधे ही रहूंगा। एकाध लंगर नाव का मैं डाले ही __ अभी कहीं तो हूं, संसार में सही। अभी कुछ तो मेरे पास है। रहूंगा। दूसरे तट पर जाने की मेरी हिम्मत कमजोर होगी। डर लगेगा माना कि भ्रामक है, माना कि सपने जैसा है, फिर भी है तो। सपना | कि पता नहीं, पता नहीं दूसरा किनारा है भी या नहीं! होगा भी, तो ही सही, झूठा ही सही, फिर भी भरोसा तो है कि मेरे पास कुछ है। मिलेगा भी या नहीं। और जैसा मन मेरा है, उसे मैं भलीभांति जानता कोई मेरा है। पत्नी है, पति है, बेटा है, बेटी है, मित्र हैं, मकान है।। हूं। और जो शर्ते तुमने कहीं, वे भी मैंने ठीक से सुन लीं कि मन माना कि झूठा है। कल मौत आएगी, सब छीन लेगी। लेकिन मौत | बिलकुल थिर हो जाए। और मैं भलीभांति जानता हूं कि क्षण को जब तक नहीं आई है, तब तक तो है। और माना कि कल सब राख | मन थिर होता नहीं। सब घोड़े वश में आ जाएं। और मैं भलीभांति में गिर जाएगा। लेकिन जब तक नहीं गिरा, तब तक तो है; तब तक | जानता हूं कि एक भी घोड़ा वश में आता नहीं। सब इंद्रियों के मैं तो सांत्वना है। पार चला जाऊं! और भलीभांति जानता हूं कि इंद्रियों के अतिरिक्त कहीं ऐसा तो न होगा, हे महाबाहो, कि इसे भी छोड़ दे आदमी, | | मेरा कोई पार का अनुभव नहीं है। और जिसकी तुम बात करते हो, उस राम को पाने की वासना से तो कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी शर्ते! और कल तुम तो कह दोगे मोहित हो जाए, तुम्हारा आकर्षण पकड़ ले। और तुम जैसे आदमी कि शर्ते तुमने पूरी नहीं की, तो तुम्हें किनारा नहीं मिला। लेकिन खतरनाक भी हैं। उनकी बातें आकर्षण में डाल देती हैं। मोह पैदा | मेरा क्या होगा? यह तट भी छूट जाए, वह तट भी न मिले, तो कहीं हो जाता है कि पा लें इस ब्रह्म को, पा लें इस आनंद को, मिले यह | बिखर तो न जाऊंगा! टूट ही तो न जाऊंगा! गति क्या होगी मेरी? समाधि, हो जाए निर्वाण हमारा भी, हम भी पहुंचें उस जगह, जहां | इस संशय को पूरा ही छेद डालो कृष्ण! पूरा ही। सब शून्य है और सब मौन है, और जहां परम सत्य का साक्षात्कार और कृष्ण से वह कहता है, तुम जैसा आदमी दूसरा मिलना है। तुम्हारे मोह में पड़ा, तुम्हारी बात के आकर्षण में पड़ा आदमी | मुश्किल है। संभव नहीं कि तुम जैसा आदमी मैं फिर पा सकूँ, जो संसार को छोड़ दे, खूटी तोड़ ले यहां से, और नई खूटी न गाड़ मेरे इस संशय को छेद डाले। पाए। यह तट भी छूट जाए संसार का, उस तट की कोई खबर नहीं। ऐसा अर्जुन ने क्यों कहा होगा? नाव कमजोर है. हवा के झोंके तेज हैं. कंपती है बहत। पतवार संशय को वही छेद सकता है. जिसकी आंखों में स्वयं संशय न कमजोर, हाथ चलते नहीं, और दूसरे किनारे भी न पहुंच पाएं, तो | हो। जो असंदिग्धमना हो, जो निःसंशय हो, जो अपने ही भीतर कहीं दोनों किनारों से भटक गई नौका की तरह, हवा के तूफानी इतने भरोसे से भरपूर हो कि उसका भरोसा ओवरफ्लो करता हो, थपेड़ों में नाव डूब तो न जाए! कहीं ऐसा तो न हो कि यह भी छूटे | बाहर बहता हो। जिसके रोएं-रोएं से पता चलता हो कि उस आदमी और वह भी न मिले! के मन में कोई संशय, कोई प्रश्न नहीं हैं। धर्म की यात्रा पर निकले हुए आदमी को यह सवाल उठता ही कृष्ण जैसे आदमी प्रश्न नहीं पूछते कभी। कृष्ण जैसे आदमी है। उठेगा ही। यह बिलकुल स्वाभाविक है। जब भी हम कुछ | कभी किसी के पास शंका निवारण के लिए नहीं जाते। अर्जुन छोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि यह छूटता है, दूसरा मिलेगा भलीभांति जानता है कि कृष्ण कभी किसी के पास शंका निवारण या नहीं? एक सीढ़ी से पैर उठाते हैं, तो भरोसा पक्का कर लेते हैं। को नहीं गए। भलीभांति जानता है, इनके मन में कभी प्रश्न नहीं कि दूसरी सीढ़ी पर पैर पड़ेगा या नहीं? दूसरी सीढ़ी पक्की हो जाए, उठा। भलीभांति जानता है कि ये बिलकुल निःसंशय में जीते हैं। 27A
SR No.002406
Book TitleGita Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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