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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
यह महान आत्मा जब विहार करता है, तो 'यत्र तत्र सर्वत्र' ही जन समूह इसकी ओर खिंचा चला आता है । तब यह आत्मा उन्हें ज्ञानका दान देकर, ज्ञानस्तम्भ ( विद्यालय पाठशाला) वहां स्थापित कर आगे बढ़ जाता है। जिसके प्रकाशमें लोग अपना मार्ग खोजें और आगे बढ़े। लोग कहते हैं - वर्णीजी अस्थिर हैं, कोई एक कार्य पूर्ण नहीं करते । यह संस्था खुलवा, वह संस्था खुलवा, इस कार्य के लिए भी हां, और उस कार्य के लिए भी हां, पर पूरा कोई भी कार्य नहीं करते । परन्तु यही तो उनकी विशेषता है। जिसने संसार छोड़नेकी ठान ली है तथा जो उसे पूर्ण रूपेण त्यागनेके मार्ग पर अग्रसर हो रहा है वह एक स्थान पर एक संस्थासे चिपटा कैसे बैठा रह सकता है ? उसे तो श्रात्मज्योति जो उसने प्राप्त की है उसे ही लोगोंको देते देते एक दिन उसी ज्योतिमय ही हो जाना है। सिवनी]
सुमेरचन्द कौशल बी. ए., एलएल० बी.
गुरु गणेश (१) री ? अरी लेखनी तू लिख दे तुम नहीं परिस्थिति के वश में मेरे गुरु की गुरुता महान्, तुमने ही उसको किया दास चित्रित कर दे वह सजग चित्र अपमानों अत्याचारों में जिसमें उनकी प्रभुता महान् ॥. पल कर तुमने पाया प्रकाश
। सान्त्वना पूर्ण तेरी वाणी
मावव मानस की परिचित सी कुछ कह देती समझा देती सत्पथ दर्शाती परिमित सी॥
ओ ! दृढ़ प्रतिज्ञ, ओ सन्यासी ओ आर्षमार्ग के उन्नायक, ओ विश्व हितैषी, लोक प्रिय ओ आदि भारती के गायक ॥
(३) वात्सल्य-मूर्ति सच्चे साधक
ओ नाम मात्र अंशुक धारी, - ओ भूले युग के मान - पुरुष ..
- जन-मन में 'समता संचारी स्या० दि० जैनविद्यालय ]-.
मानस-सागर कितना निर्मल
है राग द्वेष का लेप नहीं . तुम निःसंकोची सत्य - प्रिय है. छद्म : तुम्हारा वेश नहीं
(वि० ) रवीन्द्र कुमार
पचास