________________
महाकवि रइधू श्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री
महाकवि रइधू विक्रमकी पन्द्रहवीं शतीके उत्तरार्धके विद्वान थे। वह जैनसिद्धान्तके मर्मज्ञ विद्वान होनेके साथ साथ पुराण और साहित्यके भी पंडित थे । प्राकृत-संस्कृत और अपभ्रंश भाषा पर उनका असाधारण अधिकार था, यद्यपि उनके समुपलब्ध ग्रन्थोंमें संस्कृत भाषाकी कोई स्वतंत्र रचना उपलब्ध नहीं हुई, और न उसके रचे जानेका कोई संकेत ही मिलता है; परन्तु फिर भी, उनके ग्रन्थोंकी सन्धियोंमें ग्रन्थ निर्माणमें प्रेरक भव्य श्रावकोंके परिचयात्मक और आशीर्वादात्मक संस्कृत पद्य पाये जाते हैं, जिनमें ग्रन्थ निर्माणमें प्रेरक भव्योंके लिए मंगल कामनाकी गयी है । उन पद्योंपर दृष्टि डालनेसे उनके संस्कृतज्ञ विद्वान होनेका स्पष्ट आभास मिलता है और उनकी चमकती हुई प्रतिभाका सहज ही पता चल जाता है । साथ ही, उनके द्वारा निर्मित ग्रन्थ-राशिको देखने तथा मनन करनेसे कविवरकी विद्वत्ता और उनकी काव्य प्रतिभाका भी यथेष्ट परिचय मिल जाता है । ग्रन्थकारने यद्यपि अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया और न जीवन सम्बन्धीविशेष घटनाओंका समुल्लेख ही किया है, जिससे उनके बाल्य काल, शिक्षा, आदिके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला जाता; किन्तु उनके ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंमें जो कुछ भी संक्षिप्त परिचय अंकित मिलता है उस से सार रूपमें कुछ परिचय यहां देनेका उपक्रम किया जाता हैवंश-परिचय
कविवर रइधू संघाप देवरायके पौत्र थे, और हरिसिंघाके, जो विद्वत्समूहको आनन्द दायक थे, पुत्र थे। कविवरकी माताका नाम 'विजयसिरि'२ (विजयश्री ) था, जो रूप-लावण्यादिसे अलंकृत होते हुए भी शील-संयम आदि सद्गुणोंसे विभूषित थीं । कविवरका वंश 'पद्मावती-पुरवाल' था और वे उक्त वंशरूपी कमलोंको विकसित करनेवाले दिवाकर थे- जैसा कि उनके 'सम्मइजिन चारिउ, ग्रंथकी प्रशस्तिके निम्न वाक्योंसे प्रकट है
१ "यः सत्य वदति व्रतानि कुरुते शास्त्र पठत्यादरात् ..इत्यादि" सिद्ध चक्रविधि संधि १० । ' "यः सिद्धान्त रसायनैकरसिको भक्तो मुनीनां सदा ...." पाश्र्वपुराण संधि । २ 'हरिसिंघहु पुत्तें गुणगणजुत्ते हंसिवि विजयसिरि णंदणेण । सम्मत्त गुण निधान प्रशस्ति ।
३९८