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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
___ इन गाथाओंकी व्याख्या करते हुए टीकाकार मलयगिरने "इह सूर्याचन्द्रमसौ स्वकीयेऽयने वर्तमानौ यत्र परस्परं व्यतिपततः स कालो व्यतिपातः तत्र रविसोमयोः युगे युगमध्ये यानि अयनानि तेषां परस्पर सम्बन्धे एकत्रमेलने कृते द्वाभ्यां भागो ह्रियते । हृते च भागे यद्भवति भागलब्धं तावन्तः तावत्प्रमाणाः युगे व्यतिपाता भवन्ति ॥" गणितक्रिया -७२ व्यतिपातमें १२४ पर्व होते हैं तो एक व्यतिपातमें क्या ? ऐसा अनुपात करनेपर--१२४४१/७२= १+५२/७२४१५ = १०+६०/७२ तिथि ६०/७२४३० = २५ मुहूर्त । व्यतिपात ध्रुवराशिकी पट्टिका एक युगमें निम्न प्रकार सिद्ध होगी
तिथि
(१) १२४/७२४१% (२) १२४/७२४२ = ( ३ ) १२४/७२४३ = (४) १२४/७२ ४४ = (५) १२४/७२४५ = (६)१२४/७२४६ = (७) १२४/७२४७ = (८) १२४/७२ ४८= (९) १२४/७२४९ = (१०) १२४/७२४१० =
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जहां वेदाङ्गज्योतिषमें व्यतिपातका केवल नाममात्र उल्लेख मिलता है, वहां जैन ज्योतिषमें गणित सम्बन्धी विकसित प्रक्रिया भी मिलती है। इस प्रकियाका चन्द्रनक्षत्र एवं सूर्यनक्षत्र सम्बन्धी व्यतिपातके आनयनमें महत्त्वपूर्ण उपयोग है । वराहमिहिर जैसे गणकोंने इस विकसित ध्रुवराशि पट्टिकाके अनुकरण पर ही व्यतिपात सम्बंधी सिद्धान्त स्थिर किये हैं। जिस कालमें जैन-पञ्चाङ्गको प्रणालीका विकास पर्याप्त रूपमें हो चुका था उस काल में अन्य ज्योतिषमें केवल पर्व, तिथि, पर्वके नक्षत्र एवं योग आदिकके
आनयनका विधान ही मिलता है । पर्व और तिथियों में नक्षत्र लानेकी जैसी सुन्दर एवं विकसित जैन प्रक्रिया है, वैसी अ य ज्योतिषमें छठी शतीके बादके ग्रन्थों में उपलब्ध होती है। काललोकप्रकाशमें लिखा है कि युगादिमें अभिजित् नक्षत्र होता है । चन्द्रमा अभिजित्को भोगकर श्रवणसे शुरू होता है और अग्रिम
३, ज्योतिष करण्डक पृ० २००-२०५ । ( पूर्व पृठात् )
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