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भारतीय गणित के इतिहास के जैन स्रोत यह मूल गाथा मिलती है जो कि प्रथम प्रकारका उदाहरण है तथा पाठकोंके विचार करनेमें विशेष साधक होगी। यह गाथा बतलाती है कि लेखक विद्वान ही अंकों के 'स्थानमान' को भली भाँति नहीं जानते थे अपितु इस समय के पाठकोंने भी इसे समझ लिया था । यद्यपि इस गाथा के मूल लेखकका श्र तक पता नहीं लग सका है तथापि मेरा विश्वास है कि यह ईसाकी प्रारम्भिक शतीमें किसी जैनाचार्य ने ही लिखी होगी । ये आचार्य निश्चयसे ईसाकी ५ वीं शतीसे पहिले हुए होंगे । जैन ग्रन्थों में सुलभ उक्त प्रकारके उद्धरण प्राचीन भारत में प्रचलित 'स्थानमान' सिद्धान्त के महत्त्वपूर्ण ऐसे प्रमाण हैं जो अन्य वैदिक, आदि ग्रन्थों में नहीं पाये जाते हैं ।
घातांक - अंकों के 'स्थानमान' के प्रयोगमें आने से पहिले बड़ी संख्याओं को व्यक्त करनेके लिए विविध प्रकारोंका अविष्कार किया गया था । यतः जैन वाङ्गमय में बहुत लम्बी लम्बी संख्याओं का प्रयोग किया गया है अतः इन्हें व्यक्त करनेके लिए घातांक नियमानुसारी प्रकार अपनाये गये थे । (१) वर्ग, (२) घन, (३) उत्तरोत्तर वर्ग, (४) उत्तरोत्तर घन, (५) संख्याको स्वयं-घात ( Power ) बनाना इस प्रक्रियामें प्रधान दृष्टियां थीं। वे 'मूलों' का भी प्रयोग करते ये विशेषकर (१) वर्गमूल, (२) घनमूल, (३) उत्तरोत्तर वर्गमूल, (४) उत्तरोतर घनमूल आदिका । इनके अतिरिक्त घातोंको वे उपरि लिखित प्रकारों द्वारा ही व्यक्त करते थे । उदाहरणार्थ उत्तरोत्तर वर्ग तथा वर्गमूलको लिखनेका प्रकार निम्न था—
अ का प्रथम वर्ग
(अ)
= श्र२
अ
अ
इस प्रकार
अ का
अ
در
"
का द्वितीय वर्ग
:
का तृतीय वर्ग
...
न स्थानीय वर्ग
का प्रथम वर्गमूल
द्वितीय
तृतीय
"
"
न स्थानीय,
=
=
=
: ॥
=
=
(अर, 2
४८७
२
= अ४ = अर
१/२
अ
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अ
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श्र
न
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श्र
अ
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