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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
जिनकी उपयोगिता नहीं, उनका जीना क्या । उसकी झोंपड़ी, उसके दो बच्चे, उसकी स्त्री दरिद्रताकी मानों साकार मूर्ति थे । बाप तो रोगी था। मां खेतो में मजूरी कर कुछ कमा लाती थी, जिससे उन चारों प्राणियोंका जैसे-तैसे काम चल जाता था। स्त्रीके पास तन ढकनेके लिए एक धोती थी; लेकिन बच्चों को एक घजी भी नसीब न थी और उनकी कायासे पता चलता था कि दिन उन्हें उपवास करना पड़ता है और अधभूखे तो वे हमेशा ही रहते हैं। वे तीन भाई-बहन थे, लेकिन एकको भगवानने छीन लिया। मां को यों दुःख तो हुआ; लेकिन बाद में उसने संतोषकी सांस ली कि चलो, दुखसे एकको छुटकारा मिला !
उसे सब 'पंखा' कह कर पुकारते थे। जब उसकी बीमारीका समाचार मुझे मिला तो एक संध्याको डाक्टरको लेकर मैं वहां पहुंचा। दोनों बच्चे हमें घेरकर आ खड़े हुए। बेचारी मां ने बहुतेरा चाहा कि गरीबीका अपनी वेबसीका, यों प्रदर्शन न होने दे, कुछ तो डाल दे ; लेकिन हाय, वह तो असहाय थी । भीतर-ही-भीतर पीकर रह गयी ।
और बच्चोंके तन पर
दो घूंट आंसुत्रों के
मैंने कहा, “तुम्हारे आदमीको देखने डाक्टर आये हैं । "
आशाकी एक लहर उसके चेहरे पर दौड़ गयी । उसके भीतर छिपे दुखको मानों किसीने छू दिया। कातर वाणी में उसने कहा, "डाक्टर साहब, जैसे बने, इनको श्राराम कर दीजिये । ये उठ गये तो फिर मैं कहीं को न रहूं गी ।"
दोनों अबोध बालक मांकी श्रोर एकटक देखते रहे और मांके वे शब्द झोंपड़ीके न जाने किस कोने में विलीन हो गये ।
डाक्टरने जेब से नली ( स्टेथसकोप) निकाल कर रोगीके हृदयकी परीक्षा की, लिटा कर पेट देखा, आंखों के पलक नीचे ऊपर कर जांच की और फिर कुछ देर गंभीर हो सोचनेके उपरांत बोले, ‘This case is hopeless' ( इस रोगीके बचने की कोई आशा नहीं । )
मैं कुछ बोल न सका और मां-बच्चे आशाभरी निगाह से डाक्टरकी ओर देख रहे थे सो देखते ही रहे ।
डाक्टरने कहा, "देखो न, इसकी तिल्ली इतनी बढ़ गयी है कि यह ठीक तौरपर सांस भी नहीं ले पाता ।"
स्त्रीने गिड़गिड़ाते हुए कहा, "डाक्टर साहब सच कहिए. क्या इन्हें आराम हो जायगा । आप ही हमारे " कहते-कहते स्त्रीका गला भर आया ।
डाक्टर के मुंहसे अनायास ही सांत्वना के दो शब्द निकल पड़े "घबराओ नहीं, हम इसकी दवा करेंगे। शायद आराम हो जाय ।"
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