Book Title: Varni Abhinandan Granth
Author(s): Khushalchandra Gorawala
Publisher: Varni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti

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Page 686
________________ महाभारत कालमें बुन्देलखण्ड सुना तो उसके शरीरमें आग लग गयी। उसने यादवोंसे घनघोर युद्ध किया। उनकी नगरी जला डाली पर विजय उससे दूर ही रही । शत्रुताका यह दूसरा कारण कुछ प्रबल था। शत्रुताका तीसरा कारण तत्कालीन राजनीतीसे सम्बध रखता है। उस काल में एकराट्, बहुराट् संघ तथा श्रेणी यहां तक कि अराजकराष्ट्र जैसी राज्य संस्थाका अस्तित्व मिलता है। सारे देशमें अनगिनत छोटे छोटे राजा थे। कोई भी शक्तिशाली राजा उन्हें जीत कर या उनसे कर लेकर चक्रवर्ती राजाका पद ग्रहण कर लेता था। मगधका राजा जरासंध इसी तरहका एक पराक्रमी साम्राज्यवादी था। उसने अनेक राजाओंको जीत लिया था। अग वंग, कलिंग पुण्ड्र, चेदि, कारूष, किरात, काशी, कोशल और शूरसेन, कुण्डिनपुर, सौमनगर, आदि देशोंके राजा किसी न किसी तरह उसके प्रभाव में थे । इसके अतिरिक्त उसकी ओर कई अनार्य राजा भी थे। श्रीकृष्ण जिस कुल में हुए उस यादव कुल में गणतन्त्रीय शासन प्रणाली थी। उस गणतंत्रका तख्त उलटने वाला राजा कंस जरासंघका दामाद था। वास्तव में कंसने जरासंधकी सहायतासे ही संघके नेताको जो स्वयं उसके पिता थे कैद कर लिया था। वह अत्याचारी राजा था। कृष्ण जब युवा हुए तब उन्होंने गणतंत्रवादियों का नेतृत्व करके कंसको मार डाला और एक बार फिर उग्रसेनके नेतृत्व में गणतंत्रकी स्थापना की, जरासंध इस बात को नहीं सह सका । कहते हैं, उसने सत्रह बार यादव गणतंत्र पर चड़ाई की, पर कृष्णके नेतृत्वमें संघसेनाने उसे हर बार पराजित किया पर अठारहवीं बार जरासंधके साथ यवनराज कालयवन भी आया था। छोटा सा गणतंत्र अब अधिक न ठहर सका । वह कृष्णके नेतृत्त्वमें मथुरा छोड़ कर द्वारिकामें जा बसा । परन्तु जाते जाते भी कृष्ण कालयवनको मार गये थे । शिशुपाल इसी जरासंधका प्रधान सहायक और सेनापति था । ऐसी अवस्थामें उसका श्री कृष्णका प्रबल शत्रु बन जाना स्वाभाविक ही था। इतिहास बाताता है, श्री कृष्णने एक एक करके साम्राज्यवादके इन समर्थकों को नष्ट कर दिया। उन्होंने भीमद्वारा जरासंध का वध करवाया। वे उससे खुले युद्ध में नहीं भिड़े । इसप्रकार शिशुपाल को उन्होंने राजसूय यज्ञके अवसर पर स्वयं मार डाला । वस्तुतः वे विरोधी पक्ष की शक्ति को जानते थे । शिशुपालके बारेमें उन्होंने युधिष्ठिरसे कहा था--'हे पृथ्वीनाथ ! शिशुपालने सब प्रकार जरासंधका अवलम्ब करके उसके सेनापतिका पद लिया है१९ । जरासंधकी मृत्युके पश्चात् शिशुपाल प्रसन्न मनसे यज्ञ में श्राया परन्तु जब उसने कृष्णकी पूजा होते देखी तो उसके क्रोध को सीमा नहीं रही। कृष्ण जानते थे कि यदि वे शि पालको युद्ध के लिए ललकारते हैं तो सारा भारत दो भागोमें बंट जाता है । वे सघंटन के प्रेमी थे विघटनके नहीं। इसलिए तब तक चुप रहे जब तक भीष्मके कहने पर शिशुपालने स्वयं युद्धकी चुनौती नहीं दी। कृष्ण यही चाहते थे। युद्ध हुआ और शिशुपाल मारा गया। उस समय वहां उसके अनेकों मित्र राजा थे पर वे बोल नहीं सके क्यों कि धर्मयुद्ध था और स्वयं शिशुपालने श्री कृष्ण (१९) महाभारत, सभापर्व, अध्याय १४, श्लोक ११.

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