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स्त्री जी खाया कि डाक्टर चरणों में अपना सिर डालकर कहे कि डाक्टर, तुम हमारे परमेश्वर ही इनका इलाज तो तुम्हें करना ही होगा और कुछ नहीं तो मेरी खातिर, इन नन्हें बच्चों की खातिर, हमारी गरीबी की खातिर ! लेकिन बाहरके दो-चार लोग खड़े थे, इसलिए लाजके मारे मनकी बात मनमें ही मार कर रह गयी।
कहा, "दवाके लिए किसी आदमीको तुम्हें रोज अस्पताल
चलते-चलते डाक्टर ने भेजना होगा ।"
अभागा
स्त्रीकी बेबसी फिर उमड़ आयी । विनीत भावसे बोली, "मेरे घर में कौन बैठा है जिसे चार मील भेजूं ? मैं हूं, सो पेटके लिए मजूरी पर जाऊं कि दवा लेने ?"
मैंने कहा, "डाक्टर, क्या संभव नहीं कि आप इसे अस्पताल में भरती कर लें ? वहां आप इसकी अच्छी तरह देखभाल भी कर सकेंगे और रोज-रोज दवा लानेका संकट भी न रहेगा ।"
डाक्टर बोले, "हां, भरती किया जा सकता है ।"
मैंने उस स्त्रीसे कहा, “देखो, कल इन्हें गाड़ीमें लिटाकर अस्पताल पहुंचा आना । वहीँ पर ये रहेंगे और इलाज होगा। कपड़ा, खाना सब अस्पताल से मिलेगा ।"
अतिशय कृतज्ञता से भर कर उसने कहा, "अच्छा।"
और हम लोग चले आये ।
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चौथे दिन डाक्टर श्राये, बैठते ही मैंने कहा, "कहो भाई, उस रोगीका क्या हाल है ? कुछ फायदा दिखा १"
वे बोले, "फायदा ? अरे, वह तो पहुंचा ही नहीं ।"
बड़ी झलाहट हुई । मुझे तो पक्का भरोसा था कि अगले दिन सुबह ही उस स्त्रीने रोगीको अस्पताल पहुंचा दिया होगा ।
डाक्टरने कहा, "तुम जानते नहीं, ये लोग बड़े बालसी है अम्मल दर्जेके लापरवाह । आदमी मर जाता है, तभी इनकी आंखें खुलती हैं ।"
थोड़ी देर बाद जब डाक्टर चले गये तो गुस्से में भरा सीधा जमदार पहुंचा और उसकी झोंपड़ी पर जाकर आवाज लगायी कोई जवाब नहीं आया मैं भीतर घुसा चला गया। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दो-चार मिट्टी लकड़ी के बर्तन इधर-उधर पढ़े थे। कोटे दरवाजे के पास जाकर मैंने कहा, "कोई है ?"
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