Book Title: Varni Abhinandan Granth
Author(s): Khushalchandra Gorawala
Publisher: Varni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti

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Page 678
________________ सुजान अहीर श्री पं० बनारसीदास चतुर्वेदी "पंडित जी, गाड़ी ले लूं ? सुजान को बाय आय गई है, " सुजान अहीर के बूढ़े बाप ने कहा। "जरूर ले लो, सबसे पहले तुम्हारा काम होना चाहिए, पर किस को बला रहे हो?" मैने पूछा वह बोला, "हवलदार को हवलदार नाम का भी कोई वैद्य या डाक्टर है यह मैं नहीं जानता था, मैंने झुझला कर उस बूढ़े से कहा- 'तुम भी अजीब आदमी हो, इतनी देर से खबर क्यों दी ? डाक्टर साहब को क्यों नहीं बुलाया ? सुजानके बूढ़े बाप का चेहरा उतरा हुआ था, उसकी हक्की बक्की भूल गयी थी, वह कोई उत्तर नहीं दे सका. तब मेरी समझमें यह बात आयी कि.उस बूढ़े से, जिसका जवान लड़का कई दिन से सन्निपात में मृत्यु शय्या पर रक्खा हो, समझदारीकी उम्मीद करना ही महज हिमाकत है, मैंने फिर भी डाक्टर साहब को पत्र लिख दिया, पर हम लोग नगरसे चार मील दूर रहते हैं, सवारी का कोई प्रबन्ध नहीं: और डाक्टर साहब दूसरे दिन शाम को पा सके-सुजान की मृत्यु के पांच घंटे बाद ? इस में उनका कोई अपराध नहीं था, उन जैसे सहृदय, कर्तव्यपरायण और सुयोग्य डाक्टर बिरले ही होंगे, पर अकेले वे क्या कर सकते हैं ? ओरछा राज्यमें शिक्षा चार फीसदी है और इककीस सौ वर्गमीलके नौ सौ ग्रामों में एक अस्पताल और तीन डिस्पेन्सरी हैं। सुजानका पिता अपने तीन पुत्रों को खोकर अब भी गाय बैल चराता हुआ कभी नजर श्राजाता है, जब मैं उसे देखता हूं हृदयको एक धक्का सा लगता है। मैंने उसको कहा था, तुम्हारा काम सब से पहले होना चाहिए पर क्या हम लोगोंने सुजान और उसके भाई बन्धुत्रोंका, सर्वोपरि तो क्या, कुछ भी ख्याल रक्खा है ? क्या हमने कभी यह सोचा है कि चारों ओरकी जनताके कल्याणमें ही साहित्यिकका भी कल्याण है ?

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